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मणिधारी प्रीजिनचन्द्रमूरि पठनं श्रावणं ध्यान-विहारो गुणनं तथा। तप कर्म विधानं च, सीवनं तुम्ननाद्यपि ॥१२॥ अर्थ-पहाना, सुनाना, ध्यान करना, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने ल्प विहार करना, गुनना, तपश्चर्या क्रियाविधान और मीना दुन्ना आदि।
भोयण सुवणंजाणं ठाणं दाण निसेहणं । धारण पोत्थयाईण, आणाए गुरुणो सया ॥ १३ ॥ भोजनं शयनं यानं स्थानं दानं निधनम् ।
धारणं पुस्तकादीना-माजया गुरो. सदा ॥ १३ ॥ अर्थ-भोजन करना, सोना, गमन करना, स्थिति करना, दान करना, निषेध करना, पुस्तर माटिको का धारण करना इन्यादि अनुष्ठान गुरु को थाना ने ही करने चाहिये।
तं कन्जंपि न कायव्वं, जं गुरुहिं न मन्नियं । गुरुणो जं जहा विति, कुजा सीसों तहाय तं ॥१४॥ तत्कार्यमपि नो कर्तव्यं यद् गुरुभिर्न मानितम् । गुरवो यद् यथा त्रुवते कुर्याच्छिष्यस्तथा च तत् ।।१४॥ अर्थ-ऐसा कार्य करना ही नहीं चाहिये जो गुल्ओं के अनुमत न हो । गुल्म्हाराज जब जो काम फरमा गिष्य को चाहिये कि वह उसी काय को करे।
१-पुथयाण।