Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 54
________________ ३८ व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम् तदाणाए पयट्टतो, संघो मन्नह सग्गुणो। वियप्पेण विणा सम्म, पावए परमं पयं ॥ १० ॥ तदाज्ञायां प्रवर्तन संघो मण्यते सद्गुणः । विकल्पेन विना सम्यक् प्राप्नुयात् परमं पदम् ॥१०॥ अर्थ-तथोक्त प्रवचनाधार युगप्रधान गुरु की आज्ञा में वर्तता हुआ मघ ही सद्गुणी कहा जा सकता है। बिना किसी सकल्प विक्रय के सन्यक परमपद को वह प्राप्त करता है। जिणदत्ताणमासज्ज, जं कीरइ तयं हियं । जो तं लंघई मोहा-भवारन्ने भमेइ सो ।। ११ ।। जिन-दत्ताज्ञामासाद्य यत्क्रियते तद् हितम् । यस्तं लद्धयति मोहाद-भवारण्ये भमिति सः ॥११॥ अर्थ-श्रीजिनभगवान को दी हुई आज्ञा को श्रीजिनदत्ताना को पाकर के जो अनुष्ठान किया जाता है वह हितकारी होता है। जो मोह से उस का-श्रीजिनदत्ताज्ञा का उल्लघन करता है, वह भवाटची में भटकता है। पढणं सवणं झाण, विहारो गुणण तहा। तवो कम्म विहाण च, सीवण तुन्नणाइ चि ।। १२ ।।

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