Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 51
________________ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि साधूना साध्वीना तथा श्रावकश्राविकाणा गुणहेतोः। संक्षेपेण दर्शयामि शुद्धसद्धर्मव्यवहारम् ॥२॥ अर्थ-साधु मावियों के लिये तथा श्रावक श्राविकाओं के गुण का (सुस का ) कारण रूप शुद्ध सत्यधर्म के व्यवहार को सक्षेप से दिखाता हूँ। उसग्गेणं अववाय ओवि-सिद्धंत सुत्तनिद्दिट्ट । गीयत्थाइणं वा धमत्थमणत्थसत्यहरं ॥३॥ उत्सर्गेण अपवादतोऽपि सिद्धान्तसूत्रनिर्दिष्टम् । गीतार्थाचीर्णं वा धर्मार्थमनर्थसार्थहरम् ॥ ३ ॥ अर्य-उत्सर्ग अपवाद से आगम-ग्रन्थों द्वारा निर्दिष्ट और गीतायों से आचरित वह वर्म-व्यवहार अनर्यसमूह को हरनेवाला होता है । जेसिं गुरुमि भत्ती बहुमाणो गउरवं भयं लज्जा । नेहो वि अस्थि तेति, गुरुकुलवासो भवे सहलो ॥ ४ ॥ येपा गुरौ भक्ति-बहुमानं गौरव भय लज्जा। स्नेहोऽप्यस्ति तेपा गुरुकुलवासो भवेत् सफल ॥ ४॥ अर्थ-जिनकी गुरु महाराज में भक्ति है, बहुमान है, गौरव है गुरु महाराज से जो डरते है,-खराब काम करने मे लज्जा भी करते है और गुरुमहाराज के प्रति स्नेह भी रखते हैं उन साबु पुरुषों का गुरुकुलबास सफल हो जाता है।

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