Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 35
________________ १८ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि की सन्तप्त आत्मायें शान्ति-लाम करने लगी। नृपति मदनपाल भी अनेक समय दर्शनार्थ आकर मूरिजी के उपदेशों का लाभ उठाते थे। द्वितीया के चन्द्रमा की भांति उनका धर्म-प्रेम दिनोंदिन बढ़ने लगा। अं० कुलचन्द्र पर गुरु कृपा श्रीजिनचन्द्रमूरिजी को दिल्ली में रहते हुए कई दिन बीत गए। एक दिन अपने अत्यन्त भक्त श्रावक कुलचन्द्र को धनाभाव के कारण दुर्वल देख कर दयालु आचार्य महाराज ने कुंकुम कस्तूरी, गोरोचन आदि सुगन्धित पदार्थो से लिखे हुए मन्त्राक्षर युक्त यन्त्रपट्ट कुलचन्द्र को देते हुए कहा-इस यन्त्रपट्ट को अपनी मुष्टि प्रमाण वासक्षेप से प्रतिदिन पूजना, यन्त्रपट्ट पर चढा हुआ वह निर्माल्य वासक्षेप पार आदि के संयोग से सोना हो नायगा। कुलचन्द्र भी सुरिजो की वतलाई हुई विधि के अनुसार पूजा करने लगा जिससे वह अल्पकाल में करोड़पति हो च्या । देवता प्रतिबोध एक दिन सुरिमहाराज दिल्ली के उत्तरीय दरवाजे से वहिभूमि जा रहे थे। उस दिन महानवमी अर्थात् नवरात्रि का अन्तिम दिन था। मार्ग में जाते हुए मास के लिये लड़ते हुए दो मिथ्याष्टि देवताओं को देखा। दयाल हृदयवाले आचार्य

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