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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि
२७ अन्त समय में श्रावक लोगों को कहा था कि अग्नि संस्कार के ममय हमारी देह के सन्निकट दूध का पात्र रखना ताकि वह मणि निकल कर उसमें आ जायगी पर श्रावक लोग गुरु विरह से व्याकुल होने के कारण ऐसा करना भूल गए और भवितव्यता सं वह मणि एक योगी के हाथ लगी। श्रीजिनपतिसूरिजी ने उस योगी की स्थम्भित प्रतिमा को प्रतिष्टित कर उससे वह मणि पुनः प्राप्त कर ली थी।
मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी बड़े प्रतिभाशाली थे अतः खरतरगच्च मे प्रति चौथे पट्टधर का नाम यही रखा जाने की परिपाटी इन्ही से प्रचलित होने का पट्टावलियों में उल्लेख है।
___ "श्री आचार्य महाराज इस प्रतान्त को सुन कर अपने ज्ञान का उपयोग देकर बोले-~-मेरी ६ महीने की आयुः वाकी है, मेरे मस्तक में एक प्रभावशाली मणि है उसे लेने के लिए यह ( योगी ) कई उपाय करेगा परन्तु तुम पहले ही मेरे मृतक गरीर में से उस मणि को निकाल लेना और पोल अग्नि राम्कार करना-इस तरह की सूचना भक्त श्रावक को देकर विक्रम स० १०३९ में आचार्य यशोभद्र समाधि पूर्वक स्वर्गास्ट हुए। आचार्यश्री का स्वर्गवास मुन कर वह योगी तत्काल अपनी स्वार्य मिति के लिए वहां आ पहुंचा। उसने आचार्य महाराज के मस्तक को मणि लेन के लिए अनेक प्रयत्न किए। परन्तु जब उसे मालम हुआ कि मणि निकाला गया और वह मुझे किलो तरह कोई उपाय करने पर नहीं मिलेगा तब निराशा के ग को न राहन करते हुए उम योगी का हृदय फट गया।"