Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 40
________________ ...२१ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि (१) चातुर्वगर्यमिदं मुदा प्रयतते तद्र पमालोकितु मारक्षाश्च महर्पयम्तव वचः क्तु सदैवोधता । शक्रोऽपि स्वयमेव देवमहितो युष्मत्प्रभामीहते तत्कि श्रोजिनचन्द्रसूरिसगुरो स्वर्ग प्रति प्रस्थितः ॥ अर्थात्-हे सुगुरु श्रीजिनचन्द्रसूरि महाराज | चारों वर्णो के लोग सदैव आपका दर्शन करने के लिए सहर्प प्रयत्न किया करते थे। वैसे ही हम माध लोग भी हमेशा आपकी आज्ञा के लिए प्रस्तुत रहा करते थे फिर भी आप हम निरपराधी लोगों को छोड कर स्वर्ग सिधार गा इसका एक मात्र कारण हमारी समझ में यही आता है कि देवताओं के साथ स्वयं देवराज शकेन्द्र भी वहुत समय से आपके दर्शनों की प्रतीक्षा कर रहा होगा। (२) साहित्य च निरर्थक समभवनिर्लक्षणं लक्षण मन्त्रमन्त्रपरैरभूयत तथा कैवल्यमेवाश्रितम् । बांध दिया। इस विपत्ति के समय इन्होंने लक्ष नवभारमन्त्र का जाप किया जिसके प्रभाव से जजीर टूट गई और रात्रि के पिछले प्रहर में बन्धन मुक्त हो कर किसी वृद्धा के घर पहुंचे। उसने मदय हो कर उन्हें कोठी में छिपा लिया। तुरुष्क के बहुत सोजने पर भी ये उसके हाथ न लगे और रात्रि के समय निकल कर स्वदेश लौटे। इम विपत्ति के समय वैगग्य पाकर उन्होंने श्रीजिनदत्तमूरिजी महाराज से दीक्षा ग्रहण की थी।

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