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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि विक्रमपुर में श्रीजिनदत्तसूरिजी का बड़ा भारी प्रभाव था। सूरिजी ने बागड़ देश में 'चर्चरी " नामक ग्रन्थ रच कर विक्रमपुर के मेहर, वासल आदि श्रावकों के पठनार्थ वह चर्चरी टिप्पनक विक्रमपुर भेजा। उससे प्रभावित हो कर सहिया के पुत्र देवधर ने चैत्यवास आम्नाय का परित्याग कर सूरिजी को अजमेर से विक्रमपुर ला कर चातुर्मास कराया। सूरिजी के अमृतमय उपदेश से वहा पर बहुत से व्यक्ति प्रतिबोध पाये । बहुतों ने देशविरति और सवविरति धर्म स्वीकार किया। वहा के जिनालय में सुरिजी के कर-कमलों से महावीर भगवान की प्रतिमा स्थापित की गई।
एक वार रासलनन्दन बाल्यवस्था में आपके निकट माता के साथ पधारे। बालक के शुभ लक्षणों को देख कर सूरिजी ने उसी समय उनके होनहार एवं प्रतिभासम्पन्न होने का निश्चय कर लिया और अपने ज्ञान-बल से इस बालक को अपने पट्ट के सर्वथा योग्य ज्ञात किया।
दीक्षा विक्रमपुर में महती धर्म-प्रभावना कर युगप्रधान गुरुदेव
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१ यह अन्य अपभ्रश भाषा की ४७ गाथाओं में है। उपाध्याय श्रीजिनपालजी कृत वृत्ति सहित गायकवाड़ ओरियन्टल सिरीज' से प्रकाशित 'अपभ्रश काव्यत्रयी' मे मुद्रित हो चुका है।
२ विशेष जानने के लिए गणधरसार्धशतक हवृति देखनी चाहिए।