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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि
१३ श्रावक अपने अपने आचार्य का पक्ष लेकर एक दूसरे को परस्पर अहंकार दर्शाने लगे। बात बढ़ते बढ़ते राजसभा मे शास्त्राथ निश्चित हुआ। निश्चित समय पर शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने बडी विद्वता के साथ विपक्षी के युक्ति और प्रमाणों को रद्द कर स्वपक्ष का स्थापन किया।
पद्मचन्द्राचार्य शास्त्रार्थ में परास्त हो गये। राज्याधिकारियों ने समस्त जनता के समक्ष श्रीजिनचंद्रसूरिजी को जयपत्र समर्पण किया। चारों ओर से सूरिजी की जयध्वनि प्रस्फुटित हुई। सूरिजी की विद्वत्ता एवं सुविहित मार्ग की बड़ी प्रशंसा हुई। श्रावक लोगों ने इस विजय के उपलक्ष में बड़ा महोत्सव किया। सूरिजी के भक्त श्रावकों की 'जयतिहट्ट' नाम से प्रसिद्धि हुई और पद्मचंद्राचार्य के श्रावक 'तर्कहट्ट' कहलाने लगे। इस प्रकार यशस्वी आचार्य श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने कई दिन तक वहां ठहर कर सिद्धान्तोक्तविधि से अच्छे सथवाड़े के साथ वहा से प्रस्थान किया।
म्लेच्छोपद्रव से संघ रक्षा क्रमशः विहार करते हुए मार्ग में वोरसिदान प्राम के समीप संघ ने पडाव डाला। उसी समय वहा म्लेच्छों के आने की खबर लगने से सथवाड़े के लोग भयभीत होने लगे। संघ को म्लेच्छों के भय से व्याकुल देख कर सूरिजी ने कहा--'आप लोग आकुल क्यों हो रहे है ?