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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि गई। साह क्षेमन्धर' को प्रतिवोध दिया। वहां से विहार कर सूरिजी मल्कोट (मरोट ) पधारे। स्थानीय श्री चन्द्रप्रभस्वामी के विधिचैत्य पर साधु गोल्लक कारित स्वर्णदण्ड, कलश व ध्वजारोपण किया गया। इस महोत्सव में साह क्षेमन्धर ने ५००J उस्म ( मुद्रा ) देकर माला ग्रहण की। __मस्कोट से विहार कर सूरि-महाराज सं० १२१८ में उच (सिन्धु प्रान्तीय ) पधारे वहा पभदत्त, विन ........."
विनयशील. गुणवर्द्धन, मानचन्द्र' नामक ! साध और जगधी, सरस्वती और गुणश्रीनामक साध्वी त्रय को दीक्षा दी। इसी प्रकार क्रमशः सूरिजी के समीप और भी बहुत से व्यक्ति दीक्षित होते गये।
पश्चिम में है। विशेष जानने के लिए मुनि श्री कल्याणविजयजी का "जैन तीर्थ भीमपत्री अने रामनन्य” गीर्षक लेख पढ़ना चाहिए जो कि जैन युग सं० १९८५-८६ के भाद्रपद-कार्तिक के अक मे छपा है।।
१ ये पद्मप्रभाचार्य के पिता थे, जिनसे सं० १२४४ में आगापल्ली मे श्रीजिनपतिसूरिती ने गास्त्रार्य किया था। इसका कुछ उल्लेख श्री जिनप्रतिमूरिजी ३ वाढस्थल और विस्तार पूर्वक वर्णन गुर्वावली में मिलता है। ___ २ इन्हें भी लवणखेटक में उपर्यत पूर्णदेव गांग के साथ स० १२४५ में श्रीजिनरतिमूरिजी ने वाचनाचार्यपट दिया था।
३ स० १२३४ मे श्रीजिनपतिसूरिजी ने इन्हें महत्तरा पद दिया था।