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( ३ ) चार्य के प्राचीन स्थान चित्तौड में चैत्यवासियों का प्राबल्य था, और गुजरात तो एक प्रकार से उनका घर ही था। वे पहले चावड़ों के, और तदनन्तर चौलुपयों के अनेक वर्ष तक गुरु रहे। उनका विरोध करना कोई साधारण कार्य न था। परन्तु पतन एवं बौद्धधर्म के समान भरण की तरफ अग्रसर होते हुए जिनोपदेश का उद्धार करना आवश्यक था। अतएव चन्द्रकुल शिरोमणि श्रीजिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों के प्रबलतम दुर्ग पत्तन मे ही उनका विरोध किया और दुर्लभराज चौलुक्य की सभा में उन्हें परास्त कर, अपने गच्छ के लिये 'खरतर नामक' प्रसिद्ध विरुद किया। नवाङ्ग वृत्तिकार सुविख्यात दार्शनिक श्रीअभयदेवसूरि ने अपनी पुस्तक-रचना एवं उपदेश द्वारा इस कार्य को अग्रसर किया। उनके शिष्य श्रीजिनवल्लभ अपने समय के अन्यतम विद्वान् थे। उन्होंने केवल अनेक ग्रन्थों की ही रचना नहीं की, अपितु समस्त राजस्थान, बागड और मालवा में विहार कर सत्य धर्म का उपदेश दिया और विधिचैत्यों की स्थापना की। 'चर्चरी' के कथनानुसार श्री हरिभद्राचार्य के ग्रन्थों का मनन कर श्री जिनवल्लभसूरि ने विधिमार्ग का प्रकाशन किया (श्लोक १४)। जिन जिन बातों पर श्री हरिभद्राचार्य ने आक्षेप किया था वे सब विधिचैत्यों मे वर्जित थी। यहां रात्रि के समय नृत्य और प्रतिष्ठा न होती, रंडियों न नाचती, और रात्रि समय स्त्रियाँ चैत्यों में प्रवेश न करतीं। जाति और ज्ञाति का यहां कदाग्रह न था, और लगुड रास