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दूसरों की मान्यताओं को प्राघात न पहुंचायें। 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना' । धर्म दूसरों की निन्दा करना नहीं सिखाता, विरोधियों को नष्ट करना नहीं सिखाता, वह तो सबके प्रति समभाव की शिक्षा देता है । समता का प्रदाता ही सच्चा सम्प्रदाय कहलाता है । लेकिन हमारा मार्ग उलटा है | हम धर्म के सम्मुख न होकर उससे विमुख हो रहे हैं। पं० श्रशाधरजी ने ठीक ही कहा था - 'पण्डितं भ्रष्टचारित्रः जठरैश्च तपोधनैः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् || '
कानजी स्वामी वर्तमान काल की उन विभूतियों में से हैं जिन्होंने हजारों विपथग मियों को सत्पथ के मार्ग पर लगाया है। जो कार्य हमारे नग्न दिगम्बर साधु नहीं कर पाये उस कार्य को उन्होंने कर दिखाया । समाज पर उनका यह उपकार कम नहीं है। उनकी कुछ मान्यतानों से किमी का भी मतभेद होना संभव है, यह भी संभव है कि वे स्वयं भी कहीं गलती पर हों तो भी समय का तकाजा है कि वे मतभेद मनोभेद की हद तक न पहुंचे। संगठित समाज आज की महती श्रावश्यकता है | हमारा दोनों ही पक्षों से नम्र निवेदन है कि वे कोई ऐसा कार्य अपनी ओर से न करें जिससे समाज के संगठित होने में बाधा उपस्थित हो । पहले ही संगठन के कार्य में कई कठिनाइयां हैं । उनमें वृद्धि कर 'हम करेला और नीम चढ़ा' वाली उक्ति चरितार्थं न करें ।
स्मारिका के प्रकाशन तथा सम्पादन के सम्बन्ध में राजस्थान जैन सभा प्रतिवर्ष नए सिरे से निश्चय करती है । वह निश्चय इतना विलम्ब से होता है कि विद्वान् लेखकों से नई कृतियां प्राप्त करना बड़ा कष्टसाध्य कार्य होता है । यह तो हमारे लेखकों और कवियों का सौजन्य है कि वे हमारा एक पत्र पाने पर ही हमें अपनी रचनाएं भिजवा देते हैं । हमें उन्हें बार बार स्मृति पत्र नहीं भेजना पड़ता । यदि यह सहयोग लेखकों और कवियों की ओर से हमें नहीं मिले तो निश्चय ही स्मारिका समय पर प्रकाशित होकर पाठकों के हाथों न पहुँचे । एतदर्थ हम हमारे लेखकों और कवियों के हृदय के अन्तर्तम से आभारी हैं । यदि प्रकाशन एवं सम्पादन के सम्बन्ध में स्थायी रूप से न सही जयन्ती से कम से कम 6 मास पूर्व भी निर्णय ले लिया जाय तो इससे भी अच्छे रूप में स्मारिका का प्रकाशन हो सकता है । प्राशा है भविष्य में सभा इस सम्बन्ध में कुछ भी निश्चय करेगी ।
इस वर्ष प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक प्रौर लेखक श्री यशपालजी जैन का स्वर्गवास समाज के लिए बड़ी दुःखद घटना है । वे प्रन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति थे और देश तथा विदेशों में अपनी रचनाओं पर कई सम्मान तथा पुरस्कार उन्होंने प्राप्त किये थे । स्मारिका के भी वे नियमित लेखक थे । रचना के साथ साथ उनके उत्साहप्रद पत्र भी प्रतिवर्ष हमें प्राप्त होते थे । जैन समाज में एकता स्थापित करने हेतु वे मन वच कर्म से रत थे । ऐसी महान् प्रात्मा का प्रयोग समाज की ही नहीं राष्ट्र की क्षति है । दूसरे वयोवृद्ध लेखक श्री दौलतराम 'मित्र' भानपुरा थे जो हम से बिछुड़ गये । हम दोनों श्रात्मानों के शांति एवं सद्गतिलाभ हेतु कामना करते हैं ।
स्मारिका का यह 14 वां अंक जैसा भी हम से बन संवर सका आपके हाथों में है । इस पर आपकी निष्पक्ष सम्मति का सर्वदा स्वागत है ।
जैसा कि प्रतिवर्ष होता है इस वर्ष भी बहुत सी रचनाएं इस या उस कारण से स्मारिका में अपना स्थान ग्रहण नहीं कर पाई हैं। वे खेदपूर्वक उनके लेखकों को लौटाई जा रही है। प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता श्री दिगम्बरदासजी एडवोकेट की एक वृहत्काय रचना भी इनमें है जिसमें उन्होंने 24 तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। रचना इतनी अधिक लम्बी थी
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