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महापुराण था। शनिषेण दम्पति पालिसपुत्र सत्यदेवके साथ ससुराल जाते हए सर्पसरोवरके वटपर ठहरते है । मृणालवती नगरीके सेठ सुकेतुका पुत्र भवदेव दुष्ट था। वह अबपि देकर बाहर जाता है। श्रीदत्त और विमलत्री अपनी कन्या रतिवेगाका विवाह मशोकदत्त और जिनदलाके पुत्र सुकातसे कर देते हैं। भववेव इतने में लौट आता। और वह नवदापतिका पीछा करता है। सुकान्त और रतिवमा भागकर जंगल में पाक्षिणकी पारण लेते हैं। बह उनकी रक्षा करता है। इस बीच सार्थवाह मेरुदत वहाँ उहरता है । शनिषेण वहाँ दो चारणयुगल मुनियोंको लाहार देता है । मेदस निदान करता है-शक्तिषेण अगले जन्ममें मेरा पुत्र हो । भूतार्थ अपने पुत्र सत्यदेवको लेने पाता है परन्तु वह नहीं जाता। पिता संन्यास ग्रहण कर लेता है। शनिषेणने नवदम्पतिको सेठ सुक्त्तको सौंपा कि वह इसे राजाके पास रख दे। परन्तु शक्तिषेण शोध समुरालसे लौट पाया। पाक्विणने सुकान्त दम्पतिको बसा दिया। भवद दोनोंको जला देता है। नगरसेठके घरमें कतर होते है और पूर्वजन्मकी. कया कहते हैं । मेरुदत्त मरकर कुबेरमित्र नामका वणिक इया । पारिणी सेठानी हुई। सुकान्त बम्पधिने इन्हीं के घर जन्म लिया । कबूतरी सुलोचना थी मोर जयकुमार कबूतर (क्रमशः रतिसेना और रतिवेग)। पारितषेण कुबेरमित्रका पुत्र हा कुबेरकान्तके नामसे । पूर्वजन्मको षट्वोत्री सेठ सागरदत्तकी कन्या हुई प्रियदाताके नामसे 1 कुबेरकान्त और प्रियवत्ताका विवाह । वे दोनों पारणयुगल मुनिको माहार देते हैं, कबूतर-कबूतरी अपना पूर्वपरिचय देते हैं। प्रियदत्ता तपस्या ग्रहण करती है, कबूतर-कबूतरीको पिलाब खा लेता है । कभूतर ( रतिवेग ) विद्याधर पुत्र हिरण्यवकि नामसे उत्पन्न हुया, मोर दूसरी, रतिषणा कबूतरो प्रमावतीके नामसे तत्पन्न हुई । हिरण्यवर्मा नन्दनवन में समूतरका योग देखकर अपनी पूर्वजन्म-कया लिख देता है। प्रभावती विरहसे पीड़ित हो उठी। स्वयंवरके पत्राय दोनोंका विवाह । धान्यमालक वनमें भ्रमण करते हुए ससरोवरके बिल देखकर हिरण्यवर्मा विरक्त हो गया। प्रभावतीने मी दीक्षा | आगे लेकर ये जयकुमार और सुलोचना में उत्पन्न हुए ।
जयकुमारके दीक्षा ग्रहण करने पर सुलोचना भी उसी मार्गपर पानेका आमाह पूर्वजन्म परम्पराक उस्लेख के साथ करती है:
जामहं वणिवरकुलि बणि बराई। रिज भायहं छहिय मंदिराई॥ कय कम्म-पहा विडियाई । णासंतईकाणणि गिहियाई॥ प्रिय कंतर सह मुहि हिययपेणु । जयहं सरि मिलियन सत्तिसेगु ।। जइबई मुणिवेनावाचु कियउ। हिय उल्ल काई वि पम्मि विषल 15 जय१ जापहं पारावयाई। लइयई पोहि विसावय बयाई। जइयई सप्पण्णई खेय राई । लीलालंषिय वितललंबराई ॥ रिसि दसणेण विभिय म णाई। जापई सुराई विणि वि षणाई ॥
तझ्यहुँ लग्गिवि बहु प णिमस्तु । भो तुझ चरितु वि सह परितु ॥ इन पंक्तियों में वणिककुल (सुकान्त-रतिवेगा ) से लेकर जय-सुलोचनाके जन्मोक कथनके पार सुलोचना इस निष्कर्षपर पहुँचती है कि हम दोनों वर-वधूकी भूमिकाका निर्णाह करते रहे है। तुम्हारा-मेरा चरित्र एक है । और इसलिए प्रिय यदि विरक्तिके मार्गपर जाता है तो वह भी जायेगी। विकारके अवलोकन छोड़ती हुई सुलोचना सपश्चरण अंगीकार कर लेती है। बम्म-जन्मान्तरों में फैली हुई, वात्माको कसनेपाली रागचेतनासे कटकर 'बास्मसत्य' को अनमतिके पथपर चल देती है।
महामोरजयन्ती
६-५-७३
-देवेन्द्रकुमार जैन