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महापुराण संसारमें इतनी चीजें कठिन है
"णिगवसीलु को संपयाइ' 33-13. गह पालको सम्पादन कौन कर सकता है ?)
'पारद्धिड को सेबिज दयाई' 33-13, ( ऐसा कौन अहेरी है जो प्यासे सेवित है ?)
मणु सासिन रायपस्राउ फासु 33-13, ( बताओ किसे शाश्वत रूपसे राजप्रासाद मिलता है ?)
___'सघरत्यु विनं ण म्हह हयासु' 33-13.
(अपने घरमें भी रहनेवाली आग किसे नहीं जलाती?) ऋषभनायके पूर्वभवः
कथानककी दृष्टिसे नाभेयचरितके पूर्वाद्धमें ऋषभ तीर्थकरका उत्तरचरित ( इस पोवनका चरित है। है, जब कि उत्तरार्द्ध में पूर्व परित, नयोंकि इसमें उनके पूर्वभोंका कथन है । भरतके अनुरोषपर ऋषभ तीर्थकर मलकापुरी के राजा अतिबलसे अपनी पूर्वमव कपा शुरू करते हैं । यतिमलको पत्नी मनोहरा है । पुत्र महाबलको राजपाट देकर वह दीक्षा ग्रहण कर लेता है । महाबलके माचो महामति सम्मिन्नमति और स्वयंमति उसे गलत परामर्श देते हैं परन्तु स्वयंबुद्ध उसे सही मार्ग बताता है। स्वयंल जैन श्रावक है। नाना दृष्टान्त और पूर्वजन्म-कपनके द्वारा वह राणाकी जैनधर्ममें भाषा दृढ़ करता है । राजा अरविन्दके मायान के बाद महाबलको उसके पितामह सहलमल और सबलका पूर्वजन्म बताता है। स्वयंबुद्धि और महाबल सुमेपर्वतकी वन्दनाभक्ति करने जाते हैं। स्वयंबुद्ध चारण युगल मुनि { बादित्यगति और परिजय) से अपना और राजाका पूर्वभव पूम्सा है। बड़े मुनि बताते हैं कि यह विद्याधर राजा दसर्वे मवमें तीमंकर होगा । पश्चिम विदेह के गन्धिल्ल देशके सिंहपुरमै राजा श्रीषेण है, उसकी रानी सुन्दरी देवी । उनके दो पुत्र जयवर्मा और श्रीवर्मा । दीक्षा लेते समय थोपेणने छोटे पुत्रको राज्य दे दिया। बड़ा भाई जयवर्माको इससे बुरा लगा। दैवको बलवान् मानकर वह वैराग्य धारण कर लेता है। नवप्रवषित संन्यासी (अपवर्मा ) महीपर विद्याघरका वैभव देखकर निदान करता है कि मैं भी वैसा ही बनें। सांप काटनेसे उसकी मृत्यु होती है, वही जयवर्मा यह महाबल है । महाबल मन्त्रो स्वयंबुद्धका सपकार मानता है । अतिबलको राजपाट देकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । संलेखना मरणसे वह ईशान स्वर्ग में देव हुआ। उसका नाम कलितांग था। स्वयंप्रभा और कनकप्रभा उसकी महादेवियाँ थीं। वहाँसे वह उत्पललेट नगरके राजा वजवाहको वसुम्परा रानोसे वनजंघके नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। ईशान स्वगमें देवी स्वयंप्रमा विलाप करतो है । वह पुण्डरीकिण नगरीमें राजा बमदन्तको श्रीमती नामकी कन्या हुई । एक रात यशोधर मुनिके उद्यानमें खानेपर उसकी नींद खुलती है और उसे पूर्वभवका स्मरण हो आता है, वह पूर्वजन्मके प्रिय ललितांगके लिए व्याकुल हो उठती है। पिता उसे सान्त्वना देते हैं। श्रीमती बायको पूर्वमन्म बताती है कि वह गम्पिल देशके पाटली गांवमें नागदत्त पनिया था। उसके पांच पुत्र और तीन पुत्रियाँ थों, सबसे छोटी निर्वामिका (श्रीमती ) पी। सिरपर लकड़ियोंका गठ्ठा और मोलो में माहुर भरकर अब वह बंगलसे लौटती है तो पिहितात्रय मुनिको धर्मसभामें पहुँचती है । मुनिसे अपने पूर्व जन्मके निन्य कर्मको आनकर (मुनिके शरीरपर सग़ कुत्ता फेंका पा) वह जैनधर्म ग्रहण करती है, और १५० उपवास करनेका निश्चय करती है। मरकर वह स्वयंप्रभा देवो हुई। दोनोंका ( वसच और श्रीमतीका ) विाह । वजवाहकी कन्या अनुन्धराका विवाह बदन्तके पुत्र ममिततेजसे । दोनों संन्यास ग्रहण करते है। लक्ष्मीवती गणपकी सहायता मांगती है । रास्ते में वह धारणयुगल मुनिको वन्दना करता है। मुनि अपना परिचय देते हैं, ये पूर्वमबके