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भूमिका
स्वर्गसे च्युत होने के पूर्व ऋषभ जिनके पूर्वभवका जीव लळितांग देव कहता है :-- जणु विपणट्टाई रंगणा इव भावविचित्त ।
मेल्लिवि सासय सिद्धि सिरि सुरतहाई पर होंति सुरसई ॥
रंगन की तरह भावकी विचित्रताएं उत्पन्न होती है और फिर नाशको प्राप्त होती हैं, शाश्वत सिद्धिको छोड़कर सुरतिवेतनाएँ ( कामचेतनाएँ ) दुर्लभ नहीं होतीं ।
जयवर्मा जिस वनमें वर्णन करने जाता है उसमें सुमरों द्वारा अंकुर खाये जा रहे थे, दूसरी ओर मे आसमान को छू रहे थे, वह वन स्वरोंसे आवाज कर रहा था, बड़े-बड़े बाँसोंसे युक्त था, जो लताओं और प्रिया लताओं सहित था, जो शहरियोंके लिए प्रिय था, जिसमें अंकुर निकल रहे थे, जिसमें विचित्र अंकुरोंका समूह था, जिसमें भ्रमर गन्धका पान कर रहे थे. जिसमें नागराजोंका दास है, जो मधुसे आई है, और जो दावानलसे प्रज्वलित है, जहाँ पीलू वृक्ष बढ़ रहे हैं और पोलू ( गज ) गर्जना कर रहे हैं ।
भा
f "कीडी बद्धकवं पयासीण कद सरेण सर्वतं महावंसवंतं सल्ली पियाल पुलिंदी पियाल विणितं कुरो विचितं कुरो हं अलीपीयवासं फणिदाहिवासं महूहि पलितं वग्गी पलितं पीलुं पगतपीलुं" 21-6.
२१
कुछ उक्तियाँ
'महापुराण में कुछ उक्तियां ऐसी है जिनके उद्धरणका लोभ संवरण कर पाना कठिन है। कुमार वाघ श्रीमतीको धाय द्वारा प्रदर्शित चित्रपटमें अपने पूर्वभवकी लीलाओंका अंकन देखकर कहता है : "पट्टद्द लिहित हियवइ लिहित
को संसद डिल लिहिय" 24-9.
जो चीज चित्रपटपर अंकित है, हृदय में अंकित है और ललाटमें लिखी है---तसे कौन मेट सकता है | तं रणा वयशु समस्थिउ ।
खिच्चह उपरि मिति | 24-11,
राजाने उस वचनका समर्थन किया मानो खिचड़ीमें घी उडेल दिया ।
"कम्मर दिण्णव सरसु भोज्जु
लघुवि दाणेण करे कज्ज | 25-20.
लोभी आदमी भी दान ( स ) देकर अपना काम बना लेता है। उसने कर्मकर ( मजदूर ) को सरस भोजन दिया।
रंगंग गड बहुवारि अणवरय दुविइ कम्माणुधारि । सागर पति जहि जिवण जाउ ॥ 27-11,
रंगमंच पर गये हुए नदी पर बहुरूप धारण करमेवाला, अनवरत दुविध कमका धारण करनेवाला यह जीव, ऐसी स्थिति नहीं है कि जिसमें न जन्मा हो ।