Book Title: Lekhendrashekharvijayji Abhinandan Granth
Author(s): Pushpashreeji, Tarunprabhashree
Publisher: Yatindrasuri Sahitya Prakashan Mandir Aalirajpur

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Page 12
________________ THLOEAL प्रकाशकीय निवेदन byYASO. कोंकण केशरी पूज्य मुनिश्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी "शार्दूल" के अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता और गौरव का अनुभव होता है। कोंकण केशरीजी ने देश के विभिन्न राज्यों में और विशेष रुप से महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में धर्म प्रभावना का महान कार्य कर एक इतिहास का नवसर्जन किया है। आपने अपने व्यक्तित्व, साधना, ज्ञान एवं वाणी से कोंकण क्षेत्र में धर्म की जैसी धर्म जागृति की है उसके लिए उन्हें कोंकण केशरी के अलंकार से अलंकृत कर श्री संघो ने अपनी विनम कृतज्ञता व्यक्त की है। श्री यतीन्द्रसूरी साहित्य प्रकाशन मंदिर ट्रस्ट एक रजिस्टर्ड संस्था है जिसकी स्थापना स्व. पूज्य मुनिप्रवर श्री लक्ष्मणविजयजी महाराज की प्रेरणा से सन १९७८ ई. में हुई। मुख्य कार्यालय अलीराजपुर और बड़ोदा में है। इस साहित्य प्रकाशन दृस्ट ब्दारा गत बारह वर्षो में लगभग चालीस पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। यह अभिनंदन ग्रंथ विशिष्ट प्रकाशन है। हमारा परम सौभाग्य है कि कोंकण केशरी पूज्य मुनिवर श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी "शार्दूल' के अभिनंदन ग्रंथ का सौभाग्य इस ट्रस्ट को प्राप्त हो रहा है। अभिनंदन ग्रंथ के सम्प्रेरक पूज्य मुनिश्री लोकेन्द्रविजयजी की प्रेरणा से श्रमणीरत्ना परम विदुषी साध्वीश्री पुष्पाश्रीजी ने इसका सम्पादन किया है। सौधर्म बृहत्पागच्छीय त्रिस्तुतीक संघ मे संभवत: अपने प्रकार का यह विशिष्ट अभिनंदन ग्रंथ है और पूज्या साध्वीश्री व्दारा सम्पादन का भी एक नया अभिक्रम है। नये-नये विक्रम स्थापित कर पूज्य मुनिश्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी जैन धर्म एवं त्रिस्तुतिक संघ की अधिकाधिक धर्म प्रभावना करते रहें। जयंत प्रिन्टरी - बम्बई प्रेस के मालिक श्री छोटूभाई एवं कार्यकर्ताओं के प्रति हम आभार ज्ञापन करते हैं जिनके सहयोग से ग्रंथ का मुद्रण, प्रकाशन सुन्दर रुप में शीघ्र हो सका। इन्हीं शुभ भावनाओं और वंदना सहित Dheo VUON राजेश सी. जैन जयंतीलालजी रतीचंदजी जैन नाथुलाल जैन ट्रस्टीगण श्री यतीन्द्र सूरी साहित्य प्रकाशन मंदिर ट्रस्ट अलीराजपुर (म.प्र.) immm जगत में जिस प्रकार बालक निर्दोष होता है, वैसे संत-साई भी निर्मल होते हैं। यदि बालक और संत पवित्र नही है ९ तो वे बालक और साधु नही हैं। www.jainelibrary.org Jain Education International

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