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(५५) की यात्रा करने के लिये पधारे । आचार्य महाराज के पधारने से कोरटा-संघने आनन्दित होकर उनका अच्छा स्वागत किया। आचार्यश्री की माङ्गलिक धर्मदेशना से सभी संघ के हृदय कोमल बन गये और उनके हृदय में अपने आप यह भावना हो उठी कि
“ अपने को यह समय स्वर्णमय मिला है, और ऐसे समय आचार्य का योग वार वार मिलना दुर्लभ है । अतः ऐसा सुअवसर मिलने पर यदि कोई लाभ कारक कार्य कर लिया जाय तो अच्छा है।"
इस प्रकार की स्वच्छ मनोभावना के उद्भव होते ही पारस्परिक कलह को भूल कर प्रतिष्ठा विषयक विचार करने को सब संघ भोजन जीमने के पश्चात् इकट्ठा हुआ। कुछ देर तक घट-भंजन किये बाद, सभी इस विचार पर स्थिर हुए कि “ यदि अच्छा मुहूर्त आ जाय तो प्रतिष्ठा कार्य को किया जाय, यदि इसी
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