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( ८९ ) .. यह बात सुन कर गुरु-महाराजने सोचा कि इस संयमी साधु को अन्य क्षेत्र में लेजाने से इस का आत्मा स्थिर हो जावेगा। यह सोच कर गुरु-महाराज विहार करने को तैयार हुए । तब सच्चायमाता जो कि उन राजपूतों की कुलदेवी थी उसने मनमें विचार किया कि ऐसे तपस्वी, विशुद्ध संयमी और ज्ञान के सागर, मुनिराज मेरी वस्ती में से भूखे चले जावेंगे तो मेरे जैसा अधम आत्मा और किसका होगा ?, लोकोक्ति भी है किअपूज्या यत्र पूज्यन्ते, पूज्यानाञ्च व्यतिक्रमः । भवन्ति तत्र श्रीण्येव, दुर्भिक्षं मरणं भयम् ॥१॥
देवीने आचार्य के पास आकर, वहाँ ठहरने का आग्रह किया, और कहा-यहाँ आपको महान् लाभ होगा। सूरिजीने कहा-साधु सर्वत्र समभाव है, तथापि अन्न के विना शरीर, और शरीर के बिना धर्म नहीं रह सकता। देवीने कहा-इस प्रकार निराश होने की जरूरत
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