Book Title: Kortaji Tirth ka Itihas Sachitra
Author(s): Yatindravijay
Publisher: Sankalchand Kisnaji

View full book text
Previous | Next

Page 113
________________ (८८) रवाड की तरफ प्रयाण किया। ग्रामानुग्राम पादविहार से विचरते हुए आप ओसिया नगरी में आये, ग्राम के निकट किसी स्थान में रह कर आपने मासक्षमण की तपस्या शुरु की। शिष्य अपनी भिक्षा के लिये प्रतिदिन फिरता है परन्तु वहाँ के लोग प्रायः ऐसे हैं कि-जैन साधु कौन ? उनको भिक्षा देने में क्या फल ? इस बात को वह कुछ समझते ही नहीं। शिष्यने कई दिनों तक तो ज्यों त्यों चला लिया, परन्तु आखिर जब कोई भी उपाय शरीर निर्वाह का नहीं देख पडा, तब उसने गुरु-महाराज के चरणों में निवेदन किया कि-प्रभो! आप तो मेरु शैलसम गंभीर हैं परन्तु मेरे जैसे निःसत्व के निर्वाह योग्य यह क्षेत्र नहीं है। यहाँ साधु के व्यवहार को कोई नहीं जानता, शुद्ध आहार सर्वथा नहीं मिलता, और आहार विना शरीर नहीं रह सकता । अब जैसी आपश्री की आज्ञा हो वैसा किया जाय। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138