Book Title: Kortaji Tirth ka Itihas Sachitra
Author(s): Yatindravijay
Publisher: Sankalchand Kisnaji
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી જૈન ગ્રંથમાળા J → हाासाहेज, लावनगर. कोन : ०२७८-२४२५३२२ ३००४८४९ 1916 कोरटाजी तीर्थका इतिहास. संपादक व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्यायमुनिराज श्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज. ७९६: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat అలాంకాలం ఆలంగా అలాం १७८७२ www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = = =E S = = श्री गजेन्द्रप्रवचन-कार्यालय-सिरीफ १ ©ERESIDEBE श्री कोरटाजी तीर्थ का इतिहास। EEEEE (सचित्र) सं यो जकव्याख्यानवाचस्पत्युपाध्यायमुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी महाराज. प्रकाश कमुनिश्री विद्याविजयजी-सागरविजयजी के सदुपदेश सेढूंमावत शा० सांकलचंद किसनाजी और जवानमल रखवदास, हजारीमल जोराजी मु० नोवी (मारवाड) III मुद्रक-शाह गुलाबचंद लल्लुभाइ धी वानंद प्रिन्टिंग प्रेस-भावनगर. M श्री वीर सं० २४५६ । न श्री वि० सं० १९८७ IA श्रीराजेन्द्रसूरि सं० २३ । " । सन् १९३० इस्वी. मूल्य-सदुपयोग। PREBEASE DESERIES DE EE Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-निदर्शनम् -503० प्रागोद्गार ० कोरटा जिन मन्दिरों के ब्लोक १-१६ • लघुतीर्थवन्दना १ मारवाड देश की उत्कर्षता १-१० २ कोरंटनगर की प्राचीनता १०-१७ ३ प्राचीन वीरप्रतिमा-परिवर्तन १७-२० ४ विकलाङ्ग मूर्ति के लिये शास्त्राज्ञा २०-२३ ५ नवीन वीरप्रतिमा २३-२६ ६ कोरटा की पूर्व जाहोजलाली २६-३२ ७ कोरंटगच्छ की उत्पत्ति ३२-३५ ८ एक तांबापत्र का पत्ता ३५-३८ ९ इतर दो प्राचीन जिनमन्दिर ३८-४१ १० कोरटा में अन्यमत के स्थान ४१-४७ ११ प्राचीन जिनप्रतिमा प्रगट हुई ४७-४६ १२ नया मन्दिर और प्रतिष्ठा ५०-५८ १३ राज्यपरिवर्तन ५६-६१ १४ कोरटा की वर्तमान अवस्था ६२-६६ १५ कोरटाजी तीर्थ के मेले ६७-७० १६ मेला नेतरनेवालों की यादी १७ रत्नप्रभसूरि-परिचय (परिशिष्ट) ७४-६७ १८ दो मन्दिरों की प्रशस्ति (,,) 6८-१०० १६ कोरटामंडनस्तवनानि (,) १०१-११२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागोद्गार. भारतवर्षीय पवित्र और पूजनीय जैन तीर्थों को चार विभाग में विभक्त किये जा सकते हैं-१ प्रसिद्ध, २ प्रसिद्धपाय, ३ लुप्त, और ४ लुप्तप्राय । जो सारे भारतवर्ष में प्रख्यात, जिनकी प्रतिवर्ष आबालवृद्ध समी जैन यात्रा करते और जिनको हर हमेश स्मरगा में लाते हैं-ऐसे सिद्धाचल, गिरनार सम्मेतशिखर, शंखेश्वर, तारङ्गा, अर्बुदाचल. और केशरियाजी आदि तीर्थ प्रसिद्ध हैं । जो एकदेशीय हैं और देशविशेष में ही प्रायः प्रसिद्ध है, सर्वत्र नहीं, ऐसे-सोनागिर, भांडवा, रातामहावीर और कोरटाजी आदि तीर्थ प्रसिद्धमाय हैं। जिन्हों का केवल नामशेष ही सुन पडता है; परन्तु उनका कुछ भी अंश दृष्ट नहीं है, ऐसे-धर्मचक्र. धर्मरथ, सह्याद्रि आदि तीर्थ लुप्त हैं । और जो पतितावशिष्ट हैं, किसीके खंडेहर, किसीके चत्वर, किसीके मंडप, किसीके खंडित शिखर, और किसी की भीते आदि दिखाई देती हैं वे तीर्थ लुप्त-प्राय हैं । __प्रस्तुत कोरटाजी तीर्थ प्रसिद्ध-पाय माना जा सकता है । क्यों कि यह एकदेशीय है और इसे प्रायः बहुत थोडे जैन ही जानते हैं। कोरटाजी तीर्थ में चार सौधशिखरी जिनमन्दिर हैं, जिनमें तीन प्राचीन और एक नया है। नया मन्दिर अपनी बनावट और उच्चता में अद्वितीय है। जो इस पुस्तक में दिये हुए चित्र से स्वयं मालुम पड सकता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ सब से प्राचीन श्रीमहावीर प्रभु का मन्दिर है, जो महावीर-निर्वाण से ६८ वें वर्ष में बना, और ७० वें वर्ष में जिसकी प्रतिष्ठा पार्श्वनाथ सन्तानीय श्रीरत्नप्रभसूरिजी के करकमलों से हुई है । इससे सिद्ध है कि यह जिनमन्दिर २४०० वर्ष का पुराना है, इसके सं० १२५२ और १७२८ में एवं दो जीर्णोद्धार हुए हैं, । इसीसे यह अपने अस्तित्व को अब तक कायम रख चुका है। _दूसरा मन्दिर श्रीऋषभदेवजी का है, जो मंत्री नाहड द्वितीय के किसी कौटुम्बिक का बनवाया हुआ है, इसका भी जीर्णोद्धार विक्रम सं० १६२१ में हुआ है ऐसा यहाँ के एक खंडित लेख से जान पडता है।। तीसरा मन्दिर श्रीशान्तिनाथ का है जिसमें इस समय मूलनायक श्रीपार्श्वनाथ विराजमान हैं जो अर्वाचीन हैं । इसको मन्त्री नाहड (द्वितीय) के पुत्र ढाहल (ढाकलजी) ने विक्रम की १३ वीं शताब्दो के अन्त्य भाग में बनवाया है । यह ऊपर के द्वितीय जिनालय के पहले बना है । इसकी स्तम्भलताएँ बाद में बनी हैं और इसका जीर्णोद्धार विक्रम की १७ वीं सद्दी में कोरटा के नागोतरा गोती किसी महाजनने कराया है । दसरे और तीसरे जिनमन्दिरों का अब जीर्णोद्धार होने की अत्यावश्यकता है । क्योंकि अब ये मन्दिर खड-विखड होने लगे हैं। यदि इन्हों को सुधराने का प्रवन्ध न किया जायगा तो पड़ जाने की संभावना है। हम श्रीमान् जैनों का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तरफ लक्ष्य खींचते और चेतवणी करते हैं कि वे इनका जीर्णोद्धार कराके निजोपार्जित लक्ष्मी का लाभ लें। क्योंकि आठ नये मन्दिरों के बनवाने से जितना लाभ (पुण्य) होता है, उससे भी अधिक पुण्य एक जीर्ण मन्दिर के उद्धार कराने से होता है । ऐसा शास्त्रकार महर्षी फरमाते हैं, अतएव श्रीमानों को इस तरफ विशेष ध्यान देना चाहिये । अस्तु. श्रीमुनिसुन्दररचित गुर्वावली से पता लगता है कि विक्रम सं० १२५ में मंत्री नाहड (प्रथम) ने यहाँ एक महावीर-मन्दिर बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठा तपागच्छीय श्रीवृद्धदेवमूरिजी महाराजने की थी। यह मन्दिर इस समय कोरटाजी में नहीं है और न इसके खंडेहर का ही पता है। संभव है कि जो इस समय केदारनाथ के नाम से पहचाना जाता है वही प्राचीन जमाने में मंत्री नाहड़ (प्रथम) कारित महावीर-मन्दिर हो । वर्तमान में यह मन्दिर जैनेतरों के अधिकार में है और इसकी बनावट जैन शिल्पकारी की है, इसीसे उपरोक्त अनुमान करना निष्फल नहीं हैं। प्राचीन जमाने में कोरंटक नगर में मुहल्लेवार चोराशी जिनमन्दिर थे ऐसी किंवदन्ती प्रचलित है। यह किंवदन्ती सर्वथा असत्य नहीं है, किन्तु इस में बहुत कुछ सत्यांश है । यहाँ की जमीन से कई छूटी छवाई सर्वाङ्ग सुन्दर जिन प्रतिमाएँ निकलती हैं और अखंडित तोरण भी यत्र तत्र जमीनसे मिलते हैं जो कोस्टाजी में अनेक मन्दिर होने के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर कोई सद्गृहस्थ सरकारी रजा प्राप्त करके, दश बारह हजार रुपीया लगा कर इस कसबे की भ्रमित जमीन का खोद-काम करा डाले तो अनेक जिनप्रतिमा और उनके तोरण मिलने की आशा की जा सकती है। आशा रक्खी जाती है कि कोई सखी गृहस्थ इस कार्य को उपाड लेने के लिये कटिबद्ध होगा और अपनी धार्मिक वीरता दिखलावेगा। इस पुस्तक में हमे जो सामग्री उपलब्ध हुई, उसीके आधार पर कोरटाजी तीर्थ का संक्षिप्त इतिहास लिखा गया है। इतिहास का विषय ( अङ्ग ) यद्यपि स्थूल है, तथापि इसे कोरटाजी तीर्थ की प्राचीन और अर्वाचीन वस्तु-स्थिति का द्योतक और इतिहास लेखन सामग्री का एक साधन समझना चाहिये । इसमें कोरटाजी उसके जैन और जैनेतर स्थानों की यथा दृष्ट वस्तु-स्थिति स्थूल रूपसे आलेखित है जो इतिहास लेखकों के लिये उपयोगी और नहीं से अच्छी है। इस पुस्तक के प्रारंभ में कोरटाजी तीर्थ के चार जिनमन्दिरों के, और महावीरप्रभु की प्राचीन, तथा अर्वाचीन दोनों मूर्तियों के ब्लाक दर्ज कर दिये गये हैं, जो कोरटाजी तीर्थ की वास्तविक स्थिति के दर्शक हैं । साधनाऽभाव से भूमिनिगत, और नूतन जिनालय में स्थापित श्रीऋषभदेव भगवान् और उनके दोनों बगल के श्री सम्भवनाथ तथा श्री शान्तिनाथ भगवान् के काउसगिये एवं सर्वाङ्ग सुन्दर प्राचीन बड़ी तीन जिन प्रतिमाओं के ब्लाक इसमें दर्ज नहीं किये जा सके, इसका हमे www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण खेद है। यदि हो सका तो हम इस इतिहास की अभिवर्द्धित दूसरी आवृत्ति में इस त्रुटिको भी पूर्ण करेंगे। सिद्धगिरि पर दादा आदिनाथ के दर्शन करने से दर्शकों को जो आनन्द उत्पन्न होता है वही यहाँ की इन तीन जिनप्रतिमाओं के दर्शन से होता है और मालूम पड़ता है कि हम इन प्रतिमाओं के सम्मुख क्या बैठे हैं ? मानो ! सिद्धगिरिराज के ही सम्मुख बैठे हुए हैं। ये प्रतिमाएँ सर्वावयव पूर्ग, और छः छः फुट बड़ी हैं। इनकी प्रतिष्ठा विक्रम सं० ११४३ में बृहद्गच्छीय आचार्य श्रीविजयसिंह मूरिजीने की है जो अजितदेवाचार्य के अन्तेवासी थे।। हम सब जैनमहानुभावों से निवेदन करते हैं कि वे एक मर्तबा इस प्रभावशाली तीर्थ की भी यात्रा करके अवश्य लाभ प्राप्त करें । गोडवाड (मारवाड) की पंचतीर्थी की यात्रा करनेवाले यात्री इस तीर्थ की यात्रा का लाभ बड़ी आसानी से ले सकते हैं। क्योंकि यह तीर्थ उनके बीच में आनेवाले एरनपुरा स्टेशन से ६ कोश पश्चिम में है। स्टेशन पर सवारी १-विक्रम सं०६६४ में श्रीनेमिचन्द्राचार्य के शिष्य श्री उद्योतनमूरिजीने अर्बुदाचल की तलेटो पर आये हुए 'टेली' गाँव के पास वटवृक्ष के नीचे सर्वदेव को प्राचार्य पद दिया। अतएव श्रीसर्वदेवसरिजीने अपने गच्छ का नाम बृहद्गच्छ ( वडगच्छ) कायम किया। गच्छमतप्रबंध, पृष्ट २१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोटर, टांगा, गाडी वगैरह सब मिलती हैं। कोरटाजी में यात्रियों को किसी तरह की तकलीफ नहीं पडती । यात्रियों के योग्य सरसामान का प्रबन्ध कोरटाजी जैन संघ के तरफ से किया जाता है। इस प्राचीनतम तीर्थ को सर्वत्र प्रसिद्ध करने और इसके प्राचीन अर्वाचीन हालातों को जानने के लिये यह ऐतिहासिक पुस्तक जोधपुर रियासत के गाँव नोवी वाले श्रीमान् श्राद्धवर्य ,मावत शा० सांकलचन्द किसनाजी और जवानमल रखबदास,, हजारीमल, जोराजीने प्रकाशित की है, अतएव अन्त में उनको इस तीर्थसेवा के लिये हार्दिक धन्यवाद दिया जाता है। ॐ शान्तिः शान्तिः!!शान्तिः!!! वि० सं० १९८७ ) चैत्र शुदि ५ मुनियतीन्द्रविजय । शुद्धयशुद्धिपत्रम् पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध त्रलोक्य (वि० सं० ५७५) उसवंश त्रैलोक्य (वि. सं. ५९५) ३१ उएसवंश ८१ ३२ पार और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.umaragyanbhandar.com १ श्रीरत्नप्रभाचार्यप्रतिष्ठित-महावीरमंदिर.. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । %DDDDD १ श्री महावीर-मन्दिर यह मन्दिर अन्दाजन २४०० वर्ष का पुराना है। इसकी प्रतिष्ठा पार्श्वनाथसन्तानीय श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराजने श्रीवीरनिर्वाण से ७० वर्ष बाद ओशियाजी के महावीर-मन्दिर के साथ दो रूप करके एक ही लग्न में की थी। विक्रम की १३ वीं शताब्दी में मंत्री नाहड के पुत्र ढाहल(ढाकल)जी का, और १७ वीं सदी के आरम्भ में किसी-बीरु नामक श्रावक का; इस प्रकार इसके दो जीर्णोद्धार भी हो चुके हैं । परन्तु अब यह मन्दिर खड-विखड होने को आया है, इसलिये वर्तमान में इसका जीर्णोद्धार होने की अत्यावश्यकता है। श्री कोरटाजी-तीर्ध । - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m पं० जयविजयगणि-प्रतिष्ठित -- २ उत्तमाङ्गविकल श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ २ श्री महावीरप्रभु- प्रतिमापार्श्वनाथसन्तानीय - श्रीरत्नप्रभसूरिप्रतिष्ठित महावीर प्रतिमा के विलोप, या खंडित हो जाने से उसके स्थान पर यह दूसरी प्रतिमा विक्रम सं. १७२८ में पं. जयविजय गणिने स्थापन की थी, जो इस समय महावीर मन्दिर के मंडप के दहिने तरफ एक ताक में विराजमान है । इसके दोनों कान आधे, दोनों हाथ और पैरों के अंगूठे, बांये हाथ का पुणचा, तथा घिसी हुई नाशिका, इत्यादि अंग विकल (खंडित ) है और वे प्रायः सीमट से चिपकाये हुए हैं । श्री कोटाजी - तीर्थ | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वर-प्रतिष्ठित३ नूतन श्री महावीरप्रभु-प्रतिमा । www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ नूतन महावीर-प्रतिमा पं. जयविजयगणि-स्थापित महावीर प्रतिमा उत्तमाङ्ग विकल होने से उसे उठा कर, उसके स्थान पर यह सर्वाङ्ग सुन्दर नूतन श्री महावीर भगवान् की प्रतिमा संवत् १९५९ वैशाख सुदि १५ गुरुवार के दिन जैनाचार्य श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने प्रतिष्ठाञ्जनशलाका करके स्थापन की है । और पं. जयवि. जयगणि स्थापित उत्तमाङ्ग विकल श्री महावीर-प्रतिमा को प्राचीन स्मृति के लिये मंडप के दहिने ताक में कायम रक्खी है। श्री कोरटाजी-तीर्थ । %D0000-- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.umaragyanbhandar.com ४ विक्रम की १३ वीं शताब्दी का बना श्री ऋषभदेव मंदिर । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ श्री ऋषभदेव-मन्दिर धोलागढ की ढालू जमीन पर यह मन्दिर स्थित है, जो विक्रम की १३ वीं शताब्दी में मंत्री नाहड द्वितीय के किसी कुटुम्बीने बनवाया है। इस मंदिर का भी जीर्णोद्धार होने की अब खास आवश्यकता है। इसके प्राचीन मूलनायक खंडित हो जाने से, उन्हें इसी मन्दिर की भमती में भंडार के उनके स्थान पर सं. १९०३ में उतनी ही बडी दूसरी प्रतिमा स्थापन की गई है, जिसके प्रतिष्ठाकार सागरगच्छीय श्री शान्तिसागरसूरिजी हैं। % 3D श्री कोरटाजी-तीर्थ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.umaragyanbhandar.com | ५ नाहड द्वितीय के पुत्र ढाहलजी का बनवाया श्री शांतिनाथ मंदिर. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ श्री शान्तिनाथ-मन्दिर यह मन्दिर कोरटाजी गाँव में पश्चिमो. त्तर कोण में है और जीर्ण-शीर्ण है। इसकी स्तम्भ लताओं के 'ॐ नाढा' इन उकेरे हुए अक्षरों से जान पड़ता है कि यह मंत्री नाहड द्वितीय के पुत्र ढाहल (ढाकल) जी का बनवाया हुआ है क्यों कि मन्दिर के पिछले भाग में पडे हुए एक बेकार पत्थर के खंडित लेख से भी यही बात सिद्ध होती है । विक्रम की १७ वीं सीकी में नागोतरा गोत्री कोरटा के किसी महाजनने इसका जीर्णोद्धार कराया था, और अब इसके जीर्णोद्धार होने की खास आवश्यकता है । इसमें इस समय मूल नायक श्री पार्श्वनाथ हैं, जो सं० १९५९ में विराजमान किये गये हैं। श्री कोरटाजी-तीर्थ । amin EDDC Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सौधशिखरी नया श्री ऋषभदेवालय. www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D ६ नूतन ऋषभदेवालय यह मन्दिर कोरटा संघ के तरफ से नया बनाया गया है। इसकी प्रतिष्ठा श्री विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने सं० १९५९ में की है। इसमें मूलनायक श्रीऋषभदेवजी और उनके दोनों तरफ संभवनाथ तथा नेमिनाथ की दो कायोत्सर्गस्थ सर्वाङ्ग सुन्दर प्रतिमा स्थापित हैं, जो संवत् ११४३ की प्रतिष्ठित हैं। इन के प्रतिष्ठाकार बृहद्गच्छीय-आचार्य श्री विजयसिंहसूरिजी हैं। ये तीनों प्रतिमाएँ प्राचीन महावीर मन्दिर के कोट का सुधारा कराते समय जमीन से सं० १९११ में प्रगट हुई थीं। यह मन्दिर इन्हीं के लिये नया बना है। श्री कोरटाजी-तीर्थ । 00 SCULO 300: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य प्रातःस्मरणीयश्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज. www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज। आप मारवाड देश के प्राचीनतीर्थ सोनागिर, श्रीभाँडवपुर और कोरटाजी; इन तीनों तीर्थ स्थानों के प्रथमोद्धारक और उनमें होती हुई तीर्थ सम्बन्धीआशातनाओं को मिटा कर उन्हें समुन्नत बनानेवाले हैं। __ आप आपने निजोपदेशों से जनोपकार, कारक अनेक प्रतिष्ठाञ्जनशलाका कारक, संस्कृत प्राकृत तथा भाषा में अन्दाजन समयोपयोगी पचास ग्रन्थ-रत्नों के लेखक, सनातन शुद्ध त्रिस्तुतिक-मार्ग के पुनरुद्धारक, और अढी सौ वर्ष से जाति बहिष्कृत चीरोला गाँव के जैनों को जाति में शामिल करा देनेवाले प्रभावक जैनाचार्य हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्यायमुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी महाराज. www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - । ८ मुनिराज-श्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज । १ नाकोडापार्श्वनाथ, २ सत्यबो. धभास्कर, ३ श्री राजेन्द्रसूरीश्वर-जीवनप्रभा, ४ गुणानुरागकुलक-विस्तृतविवे. चन, ५ श्री धनचन्द्रसूरि-संक्षिप्तजीवनचरित्र, ६ जीवभेदनिरूपण, ७ पीतपटाग्रह-मीमांसा, ८ जैनर्षिपटनिर्णय, ९ निक्षेपनिबन्ध, १० मोहनजीवनादर्श, ११ अध्ययनचतुष्टय, १२ कुलिङ्गिवदनोद्गारमीमांसा, १३ चरित्रचतुष्टय, १४-१५ यतीन्द्रविहार-दिग्दर्शन प्रथम और द्वितीय भाग,१६ कोरटाजी तीर्थका इतिहास और १७ श्री जिनेन्द्रगुणगानलहरी; आदि हिन्दी साहित्य के पोषक तीस ग्रन्थों के आप लेखक हैं। COOOD Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ही अर्हनमः। श्रीकोरटाजी तीर्थ का इतिहास। - माङ्गलिक-लघुतीर्थवन्दना - सिद्धगिरि गिरनार आबू शैल-अष्टापद सुखकरु, सम्मेतशिखर जिनवीस ईश शोभित जगजयकरु । धुलेव लोद्रव कोरंट चंपा आदि तीरथ जे मही, स्नेह-सिक्त त्रिकालवंदन अहर्निश हो तिनको सही १ उपल मोती प्रवाल कंचन काष्ठ धातुज मृन्मयी, माणिक्य पुखराज विशद-वेलु रत्न हीरा मणिमयी । स्वर्ग मर्य पाताल नग वन जल अरु थल में जे रहीं, जिनेश-प्रतिमाओं को त्रिकाल वंदन करुं प्रेमें सही २ विदेहमंडन विश्वदीपक विहरमान जिन तीर्थपा, सीमंधरादि जिन वीस के मुनिवरजी गणाधिपा । चौवीसियाँ जिनसूत्र मध्ये भरतादि चेनें कहीं, उन सभी को त्रिकाल वंदन यतीन्द्र का होवो सही ३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) १ मारवाडदेश की उत्कर्षता मारवाड यह शब्द मरुवार का अपभ्रंस है जिसको प्राचीन काल में मरुस्थान भी कहते थे । मरुस्थान से मिलते जुलते मरुदेश, मरुमंडल, मरुधर, और मारवाड शब्द भी हैं ! कुछ लोगों का अनुमान है कि जैसलमेर का संस्कृत नाम माड ' है और वाड़ की तरह उसके चारो तरफ मरुदेश होने से इसको मारवाड कहते हैं । यह राज्य राजपुताना के पश्चिमी भाग में है । इसके उत्तर बीकानेर, उत्तर-पूर्व में जयपुर का शेखावटी परगना, पूर्व में मेवाड़राज्य और अजमेर का मेरवाडा जिला, दक्षिण में सिरोही और पालनपुर, पश्चिम में कच्छ का रन और थरपाकर जिला और उत्तर-पश्चिम में जेसलमेर है । यह २४ अंश, ३७ कला और २७ अंश, ४२ कला उत्तरांश, तथा ३० अंश, ४ कला और ७५ अंश २२ कला पूर्व रेखांश के बीच फैला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) हुआ है । इसकी लंबाई उत्तर पूर्व से दक्षिण पश्चिम तक ३२० माइल और चौड़ाई १७० मा. इल है । इस राज्य का क्षेत्रफल ३५०१६ वर्ग माइल है। इसमें १६० वर्ग-मील का सांभरझील का हिस्सा भी शामिल है। मारवाड में २१ परगने हैं जिनका क्षेत्रफल ३५०१६ वर्गमील है । इनमें आबाद शहर २५३, आबाद गाँव ४११८ और कुल आबादी सन् १९२१ की गणनानुसार १८,४१६४२ है । परगनों के नाम ये हैं जसवंतपुरा १, जालोर २, जैतारण ३, जोध. पुर ४, डोडवाडा ५ देसूरी ६ नागोर ७ पचपदरा ८, परवतसर ९, पाली १०, फलोदी ११, बाली १२, बीलाड़ा १३, मालानी १४, मेडता १५, शिव १६, शेरगढ १७, सांचोर १८, सांभर १९, सिवाना २०, और सोजत २१; मारवाड़ देश की वर्तमान राजधानी जोधपुर है जो पुरानी राजधानी मंडोर से ५ माइल दक्षिण है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) इस को राठोड राजपूत राव जोधाजीने विक्रम सं. १५१६ ज्येष्ट शुदि ११ शनिवार के दिन बसाया था। मारवाड देश की भूमि विशिष्ट, पवित्र और वीर प्रसूता है। इतिहास के रमणीय उद्यान में इस देशने जितना गौरव पाया है, उतना दूसरे किसी देशने नहीं पाया । इस दिव्य भूमिने उन समर-विजयी वीर योद्धाओं को जन्म दिया था कि जिन्होंने केवल अपनी आत्म-रक्षा ही नहीं किन्तु देश, समाज, धर्म और ऐतिहासिक पवित्र तीर्थस्थानों की भी रक्षा अपने जान-माल को देकर की थी। धनसम्पत्ति, यशः गौरव और जनसमृद्धि में भी यह देश दूसरे देशों से कभी किसी प्रकार पछात रहा नहीं है। भारतवर्ष के एक कोने से दूसरे कोने तक आज जो क्षत्रिय जातियाँ, ओसवाल, पोरवाड, और श्रीमाल आदि 'जैन जातियाँ और कतिपय ब्राह्मण जातियाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) हयात हैं, उनका आदि उत्पत्ति-स्थान यही पवित्र देश है । इतना ही नहीं बल्कि, अपने देश को छोड कर दूर दूर देशो में जा वसने पर भी वे जातियाँ वहाँ पर भी अपने पवित्र मारवाडदेश की गौरव-धजा फरका रहीं हैं । इस देश की प्राचीनतम नगरी श्रीमाल ( भीनमाल ) में महाराजा भाणजी ( भानु १ जैनपट्टावली की एक कथा में लिखा है कि गौतमस्वामीने श्रीमाल नामक एक क्षत्रिय राजा को प्रतिबोध देकर जैन बनाया, उसने अपने नामसे नया नगर वसा कर राज्य किया । वही ' श्रीमाल ' इस नामसे प्रख्यात हुआ, जिसके रत्नमाल फूलमाल आदि नाम भी पाये जाते हैं । 1 श्रीमाल का भीलमाल या भिन्नमाल ( भीनमाल ) नाम वि० की १६ वीं सीकी, या उसके बाद के समय में मिलता है । मीयागाँव में स्थित वासुपूज्यप्रतिमा के वि० सं० १५४६ के लेख में श्रीमालीज्ञाति का उद्देशी श्रावक इसी भीनमाल का था | तपागच्छीय मुक्तिसागर को उपाध्याय पद मिले बाद वि० सं १६८० में भीनमाल आये ऐसा राजसागरसूरिनिर्वाणरास में लिखा है । अतएव श्रीमाल का वर्त्तमान भीनमाल नाम भी पुराना जान पड़ता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) सिंहजी ) के शासन काल में सोमा २१ क्रोड, राजा १८ क्रोड, जोगा १४ क्रोड, वर्द्धमान १४ क्रोड, नरसिंह १२ क्रोड, वदा १४ क्रोड, श्रीमल्ल ७ क्रोड, भूमच ७ क्रोड, सामंत ५ क्रोड, समधर ५ क्रोड, हरखा ५ क्रोड, गोवर्द्धन ५ क्रोड, सालिग ४ कोड, शिवदास ३ क्रोड, और नोडा ५ कोड़ आदि सम्पत्तिवाले ८० साहूकार निवास करते थे जो प्रायः सभी जैन थे। इन कोटीध्वजों के अलावा श्रीमाल में लक्षाधिपतियों की संख्या कोई कर नहीं सकता था, ऐसा एक जैनपट्टावली से पता लगता है। ___ इस प्रकार के धनकुबेर उस समय केवल श्रीमाल नगर में ही नहीं किन्तु, मारवाड के सत्यपुर ( सांचोर ), रत्नपुर, चन्द्रावती मंडोबर, थिरपुर, हस्तिकुंडी ( हथंडी), शमीपाटी (सेवाडी), नन्दगिरी (आबु), आरासण (कुंभारिया ), जाबालिपुर (जालोर), फलबर्द्धि (फलोदी), उपकेश-पट्टन (ओसिया), नन्द Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुर ( नाडोल ) और जेसलमेर आदि नगरों में भी ऐसे ही धनकुबेर हजारों की संख्या में रहते थे, जिन्होंका स्मरण आज तक उनके कृतकार्यों के प्रशस्ति लेख करा रहे हैं। राणकपुर का त्रैलोक्य-दीपक, नाडलाई के मन्दिर, हमीरगढ के मदिर, नाकोडा के मन्दिर और कापरडा आदि के मन्दिरों के बनवाने वाले इसी देश के धनकुबेर थे और उन पवित्रात्माओं को इसी देशने जन्म दिया था। श्रीमहावीर-निर्वाण से ७० वर्ष बाद पार्श्वनाथसन्तानीय श्रीरत्नप्रभाचार्यने इसी देश के उपकेश-पट्टन में एक लाख चौरासी हजार और किसी किसी पट्टावली के अनुसार तीन लाख चौरासी हजार क्षत्रिय राजपूतों को प्रतिबोध दे कर उनका उऐस-उपकेश-ओसवाल वंश १ श्रीमाल नगर से एक जुत्था जुदा पडकर राजपुताना के मध्य-भाग में ओस या उएस नगर वसाकर रहा । वही ' उपकेशपट्टन' (ओसिया ) नाम से प्रख्यात हुआ, और मोसवाल जैनों का मुख्य उत्पत्तिस्थान कहलाया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) कायम किया था । खरतरगच्छीय श्रीजिनदत्तसूरिजीने इसी देश में एक लाख तीस हजार क्षत्रियों को उपदेश देकर जैनी बनाया था। संखेश्वरगच्छीय श्रीउदयप्रभसूरिजीने इसी देश के श्रीमाल नगर में प्रतिबोध देकर हजारों जैनेतर कुटुम्बों को जैनी बनाया था और वादी प्रबर श्रीवृद्धदेवसूरिजीने इसी पवित्र देश के कोरंटनगर में तीस हजार पांचसौ कुटुम्बों को उपदेश दे करके जैनी बनाया था। परमार राजा नागभट ( नाहडदेव )ने इसी देश के सत्यपुर में महावीर तीर्थ की स्थापना करके उसकी प्रतिष्ठा जजगसूरिजी के कर-कमल से कराई थी। बलद्राचार्यने इसी देश के हस्तिकुंडी नगर में विदग्धराज (विग्रहराज ) से दानपत्र लिखवाया था । वादिवेताल श्रीशान्त्याचार्य ने इसी देश के नाडोल नगर में मुनिचन्द्रसूरि को न्यायशास्त्र पढाया था और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमानदेवसूरिजीने इसी देश के नन्दपुर में लघुशान्तिस्तोत्र की रचना की थी। साहित्यप्रचारक भी इस देश में कम नहीं हुए। याकिनी महत्तरासूनु श्रीहरिभद्रसूरिजीने १४४४ ग्रन्थरत्नों की अभिवृद्धि इसी देश में की थी, मुनिचन्द्रसूरिजीने उपदेश-कन्दली नामक टीका इसी देश में बनाई थी, पूर्णभद्रसूरिजीने पञ्चतन्त्र की संशोधित आवृत्ति का प्रचार इसी देश में किया था और इसी प्रकार वादीदेवसूरि, पूर्णदेवसूरि, वीरसूरि और चन्द्राचार्य आदि समर्थ आचार्योंने भी साहित्यप्रचार सम्बन्धी निज वीरता इसी देश में बताई थी। भारत प्रसिद्ध जेसलमेर के ज्ञानभंडार का सौभाग्य इसी देशने पाया है। अतएव निर्विवाद मानना पड़ता है कि भारतवर्ष में इतर देशों से मारवाड देश किसी वात में कभी पछात नहीं रहा। अरे ! इतना ही क्यों ? वर्तमान में हि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) न्दुस्तान के सिद्धाचल, गिरनार, सम्मेतशिखर, आबु और केशरियानाथ आदि जो परम पवित्र तीर्थ हैं, उनकी सालियाना आवक का बारह आनी हिस्सा भी इसी देश के भावुक पूर्ण करते हैं और निज देश में भी नवीन जिनमंदिर, प्रतिष्ठा, उजमना, उपधान, ज्ञानसेवा आदि सुकृत कार्यों के लिये प्रतिवर्ष हजारों रुपये खर्च करते हैं । अस्तु. २ कोरंट ( कोरटा ) नगर की प्राचीनता-- मारवाड देश में जिस प्रकार अपनी प्राचीनता का गौरव दिखाने के लिये श्रीमाल, सत्यपुर और ओसिया प्रसिद्ध है। उसी प्रकार मारवाड में जोधपुर-स्टेट की हकुमत का यह सदर स्थान है । इसका क्षेत्रफल १८१८ वर्गमील और इसकी जन-संख्या ७२२०१ मनुष्यों की है । इसका असली नाम संस्कृत में ' सत्यपुर' और प्राकृत में 'सच्चउर' है, जो अपभ्रष्ट रूपान्तर ' सांचोर' बन गया है । यह स्थान प्राचीन और जैनतीर्थों में से एक है । जगचिंतामणि नामक प्राचीन चैत्यवंदन में 'जयउ वीर सचउरी मंडण' इन शब्दों से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) कोरंटनगर भी अपनी प्राचीनता दिखाने में किसी प्रकार कम नहीं है। यह कसबा जोधपुर रियासत के बाली परगने में राजपुताना मालवा रेल्वे के एरनपुरा स्टेशन से १२ माइल पश्चिम में आबाद है, जो इस समय एक छोटे गामड़े के रूप में देख पड़ता है। इस पवित्र स्थल का नमस्करणीय उल्लेख किया गया है। आचार्य श्रीजिनप्रभसूरिजीने अपने अति महत्व के ग्रन्थ 'विविधतीर्थकल्प' में सत्यपुरकल्प लिख कर इस तीर्थका और इसके संस्थापक का संक्षेप में पूरा इतिहास लिखा है। उससे जान पडता है कि वीरनिर्वाण के बाद ६०० वर्षे श्रीजजगरिजी के उपदेश से परमार राव नाहड़ने यहाँ मव्य मन्दिर बनवा कर, उसमें धातुमय महावीर प्रतिमा विराजमान की । कविवर पं० धनपालने भी इस प्रभावशाली तीर्थ का 'सत्यपुर महावीर-उत्साह' रच कर इसको नमस्कार किया है। ? यह गोडवाड में जोधपुर-स्टेट की हुकुमत का सदर स्थान है जो बी. बी. एन्ड. सी, आई रेल्वे के फालना स्टेशन से ५ माइल दूर है। इसका क्षेत्रफल ८३४ वर्ग-मील, और जनसंख्या ६६००५ मनुष्यों की है जो सन् १९२१. इस्वी की गणनानुसार समझना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) इसके लगते ही एक धोले पत्थर की पहाडी है जिसके ऊपर अनन्तरास सांकलाने अ. पने राज्य काल में पका किला बनवाया था, जो धोलागढ के नाम से विख्यात हुआ और अब भी इसी नामसे पहचाना जाता है। यह किला इस समय पतितावशिष्ट है। इसके मध्य भाग में 'वरवेरजी' माता का स्थान है जो अनन्तराम सांकला की अधिष्ठायिका देवी मानी जाती है। इसी के पास एक गुफा है जिसमें तीनसौ आदमी आराम से बैठ सकते हैं। इसके भीतरी कमरे में किसी अबधूत योगी की धूनी है। यहाँ के अधिवासियों का कहना है कि किसी किसी वक्त धूनी में से अपने आप जलती हुई अग्नि दिखाई देती है । इस पहाडी का रास्ता (चढ़ाव) बड़ा विकट और भयंकर है, इस कारण गुफा में न कोई रहता है और न कोई जाता है। इस कसबे के चारों ओर प्राचीन मकानों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३ ) के खंडेहर पड़े हैं, उन्हों के और कतिपय मन्दिर-देवलों के देखने से अनुमान किया जा सकता है कि किसी समय यह दस कोश के घेरे में वसा होगा। इसका पश्चिम-दक्षिण भाग झारोली (मारवाड़) के पहाड़ से दबा हुआ है और शेष तीन भाग खुले हुए हैं। _इसकी प्राचीनता दिखलानेवाले स्थानों में, सब से प्राचीन महावीरप्रभु का सौधशिखरी जिन-मन्दिर है जो धोलागढ-पहाडी, या कोरटा गाँव से आधा माइल दक्षिण में नहरवा नामक मैदान में स्थित है। श्रीवीरनिर्वाण से ७० वर्ष के बाद इसी भव्य मंदिर में वीरप्रभु की प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई है । इस मन्दिर के चोफेर पक्का कोट बना हुआ है और उसके भीतरी दैलान में भूमिगृह-भोयरा-तलघर मजबूत बंधा हुआ है, जो प्राचीन है। कल्पसूत्र की कल्पद्रुमकलिकाटीका के स्थविरावली अधिकार में लिखा है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) उपकेशवंशगच्छे श्रीरत्नप्रभसूरिः, येन उसियनगरे कोरंटनगरे च समकालं प्रतिष्ठा कृता, रूपद्वयकरणेन चमत्कारश्च दर्शितः । --उपकेशवंशगच्छीय श्रीरत्नप्रभाचार्य हुए जिन्होंने ओसिया और कोरंटक (कोरटा) नगर में एक ही लग्न में प्रतिष्टा की और दो रूप करके चमत्कार दिखलाया। रत्नप्रभसूरि-पूजामें लिखा है किमहावीर-निर्वाणथी, वर्ष सप्तति जाय । शुभ कोरंटक तीर्थनी, तदा प्रतिष्ठा थाय ॥?" रत्नप्रभसूरीश्वरे, स्थाप्युं तीरथ एह । पार्श्वनाथ संतानमां, छट्ठा पाटे जेह ॥२॥ विद्याधर कुलनभमणि, रत्नप्रभसूरीश । एक लग्नमां तीर्थ दोय, जेह प्रतिष्ठा करीश ॥३॥ ओसिया ने कोरटा, प्राचीन तीर्थ गणाय । यात्रा करतां भविजना, सफल करे निज काय ॥४॥ जैनधर्मविषयक-प्रश्नोत्तर के पृष्ठ ८१ में आत्माराम (विजयानन्दसूरि) जी लिखते हैं कि " एरनपुरा की छावनी से ३ कोश के लगभग कोरंट नामा नगर ऊजड पड़ा है जिस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) जगो कोरटा नामे आज के काल में गाम वसता है । यहाँ भी श्रीमहावीरजी प्रतिमा मंदिर की श्रीरत्नप्रभसूरिजी की प्रतिष्ठा करी हुई अब विद्यमान काल में सो मन्दिर खड़ा है। " । उक्त लेखों से इस निर्णय पर स्थिर होना पडता है कि विक्रम से ४०० वर्ष पूर्व, और वीरनिर्वाण से ७० वर्ष बाद सब से प्रथम कोरटा में यही महावीर मन्दिर बना। अतएव उस समय में यह नगर अपनी समृद्धि में अद्वितीय होगा तभी यहाँ रत्नप्रभसूरि जैसे समर्थ आचार्य के हाथ से प्रतिष्ठा ( अंजनशलाका ) हुई। आचार्य श्रीरत्नप्रभसूरिजी विद्याधरकुल और उपकेशवंशगच्छ में पार्श्वनाथसन्तानीय श्रीस्वयंप्रभाचार्य के पटधर थे। रत्नप्रभाचार्य के हाथ से प्रतिष्ठा होने के कारण से ही कोरंटतीर्थ कहलाया और सर्वत्र तीर्थ तरीके ही प्रसिद्धि में आया। पंडित धनपाल जो धाराधिपति महाराजा भोज की सभा का रत्न था। उसने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिक्रम संवत् १०८१ के आसपास ‘सत्यपुरीयश्रीमहावीरउत्साह ' बनाया है, जो अपभ्रंस प्राकृत भाषा में है। उसकी १३ वीं गाथा के प्रथम चरण में 'कोरिंट-सिरिमाल-धारआहडु-नराणउ ' इस कडी से दूसरे तीर्थों के साथ साथ कोरटा तीर्थ का भी स्मरण किया है। तपागच्छीय सोमसुन्दर सूरिजी के समयवर्ती कवि मेघ (मेह) ने सं० १४९९ में रची तीर्थमाला में · कोरटउं' पं० शिवविजयजी के शिष्य कवि शीलविजयजीने सं. १४४६ में रची तीर्थमाला में 'वीरकोरटिं मयालु' और सं० १७५५ के लगभग श्रीज्ञानविमलसूरि रचित तीर्थमाला में ' कोरटइं जीवितसामी वीर' इन वाक्यों से इस पवित्र तीर्थ का स्मरण करके नमस्कार किया गया है। इससे जान पडता है कि विक्रम की ११ वीं शताब्दी से १८ वीं शताब्दी तक यहाँ अ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat , Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) नेक साधु, साध्वी,श्रावक, तथा श्राविकाएँ यात्रा के लिये आते थे और यह स्थान उस समय में भी तीर्थ-स्वरूप माना जाता था। अतएव निर्विवाद सिद्ध हुआ कि यह स्थान अन्दाजन २४०० वर्ष का पुराना है और जैनों के इतर तीर्थों के समान यह भी माननीय, पूजनीय और दर्शनीय है। ३ प्राचीन वीरप्रतिमा का परिवर्तन__ आचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि प्रतिष्ठित महावीर प्रतिमा के विलोप, या खंडित हो जाने से उसके स्थान पर विक्रम संवत् १७२८ में विजयप्रभसूरि के शासन काल में जयविजयगणि के उपदेश से दूसरी महावीर प्रतिमा पीछे से स्थापन की गई, ऐसा इस मंदिर के मंडपगत एक स्तंभ पर खुदे हुए लेख से पता लगता है। वह लेख इस प्रकार है___“संवत् १७२८ वर्षे श्रावणसुदि १ दिने भहारक श्रीविजयप्रभसूरीश्वरराज्ये श्रीकोरटा नगरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) पंडित श्री ५ श्री श्री जयविजयगणिना उपदेशथी मु० जेता पुरासिंग भार्या, मु. महारायसिंग भा०, सं० बीका, सांबरदास. को० उधरणा, मु. जेसंग, सा० गांगदास. सा. लाधा, सा० खीमा, सा० छांजर, सा० नारायण, सा० कचरा प्रमुख समस्त संग भेला हुइने श्रीमहावीर पवासण बइसार्या छे. लिखितं गणि मणिविजय-केसरविजयेन । बोहरा महवद सुत लाधा पदमा लखतं. समस्त संघनई मांगलिकं भवति, शुभं भवतु." इस लेखोक्त महावीर-प्रतिमा भी शिखा, कान, नासिका, लंछन, परिकर, हस्तांगुली और चरणांगुलियों से खंडित है, अतः अपूज्य होने से उसके स्थान पर नवीन महावीर प्रतिमा सं. १९५९ वैशाखसुदि पूर्णिमा के दिन अंजनशलाका करके महाराज श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीने स्थापन की है और प्राचीन स्मृति के लिये पं० जयविजयगणि स्थापित पुरानी महावीर प्रतिमा को मंडप के एक ताक में कायम रक्खी है। प्रश्न-अंगविहीन प्रतिमा को भी उठा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) कर उसके स्थानपर नवीन प्रतिमा बैठा देना यह एक प्रकार की आशातना है ? उत्तर-यह आशातना नहीं किन्तु शास्त्रकार महर्षियों की आज्ञा और शिष्टाचरणा का पालन करना है। जिस प्रतिमा के दर्शन-पूजन करनेवालों को लाभ के बजाय उलटा नुकशान पहोंचता हो वैसी उसमाङ्ग विकल प्रतिमा को उठा कर उसके स्थान पर सर्वाङ्ग-सुन्दर प्रतिमा विराजमान करने से आशातना नहीं है। इन्हीं बातों का पूर्वापर वि. चार करके शास्त्राज्ञाओं का मान रखने के लिये जालोर के सोनागिर पर परमार्हत् महाराजा कुमारपाल के मंदिर में हेमचन्द्राचार्य स्थापित मुख नयनादि विकलाङ्ग महावीर प्रतिमा को भ० विजयदेवसूरिजी की आज्ञासे पं० जयसागरगणिने उठा कर, उसके स्थान पर दूसरी महावीर प्रतिमा सं०१६८१ में स्थापन की और हेमचन्द्राचार्य प्रतिष्ठित विकलाङ्ग प्रतिमा को प्राचीन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) स्मृति के लिये बाहर मंडप के ताक में कायम रक्खी , जो वहाँ अब तक मंदिर के मंडप में ही विराजमान है । इसी शिष्टाचरणानुसार शास्त्रीय आज्ञाओं का पालन करने के लिये श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीने कोरटा के वीर मन्दिर में प्राचीन विकलाङ्ग मूर्ति को मंडप में कायम रक्खी और पब्बासण पर नयी सुन्दर मूर्ति स्थापन की। यह कार्य आशातना का द्योतक नहीं, किन्तु शास्त्राज्ञाओं का पालक है। ४ विकलाङ्ग प्रतिमा के लिये शास्त्राज्ञाबरिससयानो उड्ढे, जं बिंब उत्तमेहिं संठवियं । बियलंगुवि पूइजा, तं बिंब निष्फलं न जो॥१॥ अत्र पुनरयं विशेषः-मुखनयननऋग्रीवाकटिप्रभृतिप्रदेषु भग्नं मूलनायकबिम्बं सर्वथैव पूजयि. तुमयोग्यम् । आधारपरिकरलांछनादिप्रदेशेषु तु खंडितणपि तत्पूजनीयमिति। आत्मप्रबोध १ प्रस्ताव । -उत्तमाचार्यादि से प्रतिष्ठित बिम्ब जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) सौ (१००) वर्ष से ऊपर का स्थापित हो, वह यदि विकलाङ्ग ( उत्तमांगों में खंडित ) भी हो तो पूजने लायक है क्योंकि वह निष्फल नहीं हो सकता । यहाँ पर इतना विशेष है कि वह मूलनायक बिम्ब मुख, नयन, नासिका, ग्रीवा और कटि आदि प्रदेशों में खंडित हो तो पूजने लायक नहीं है, परन्तु आघार, परिकर और लांछन आदि प्रदेशों से खंडित हो तो उसके पूजने में हरकत ( दोष ) नहीं है । सुहनक्कनयणनाही, कडिभंगे मूलनायगं चयह । आहरणवत्थपरिगर - चिंधा ओहभंगि पूजा ॥२॥ -मुख, नयन, नासिका, नाभि और कटि आदि प्रदेशों में खंडित मूलनायक बिम्ब पूजा के योग्य नहीं है, यदि वह उत्तमाङ्ग शोभित और आधार, वस्त्र, परिकर से खंडित हो तो पूजा के योग्य है ( श्राद्धविधिटीका ) इन शास्त्रीय आज्ञाओं से यह सिद्धान्त स्थिर हुआ कि - सौवर्ष के ऊपर का प्रतिष्टित और उत्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) माचार्यादिकों से विधिपूर्वक स्थापित मूलनायक बिम्ब यदि मुखनयनादि उत्तमाङ्गों से विकल हो तो पूजने लायक नहीं है। परन्तु यदि वह आधार, परिकर और लंछन आदि से विकल हो तो पूजने लायक है । क्यों कि वह निष्फल, या निष्कल (अधिष्ठायक शून्य) नहीं होता। प्रश्न-उत्तमाङ्ग विकल प्रतिमा को यदि सुधरा के पूजी जाय तो क्या दोष है ? उत्तर-शास्त्रकारोंने उत्तमाङ्ग विकल प्रतिमा को पूजन योग्य नहीं कही और ऐसी विकल प्रतिमा के पूजने के विषय में विवेक विलास-कारने साफ लिखा है किनखाङ्गुलीषाहुनाशांघीणां भङ्गेष्वनुक्रमात् । शत्रुभिर्देशभङ्गश्च, बन्धकुलधनक्षयः ॥३॥ -नख और अंगुली विहीन प्रतिमा की पूजा करने से पूजा करनेवालों को शत्रुओं से भय होता है। कर विहीन प्रतिमा के पूजने से पूजकों को कैदखाने में पड़ने का भय होता है । नासिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) विहीन प्रतिमा के पूजने से कुलक्षय और चरण विहीन प्रतिमा के पूजने से धनक्षय होता है। धातुलेपादिजं बिम्ब, व्यङ्गं संस्कारमर्हति । काष्ठपाषाणनिष्पन्नं, संस्कारार्ह पुनर्नहि ॥ १ ॥ -सोना, चांदी आदि धातुओं का और लेपादि से चित्रित बिम्ब यदि किसी अङ्ग में खंडित हो जाय तो वह सुधराने योग्य है, लेकिन काष्ठ तथा पाषाण का बना बिम्ब विकलाङ्ग होने पर सुधराने योग्य नहीं है। इस आज्ञा से निःसन्देह सिद्ध हो जाता है कि पाषाणमय प्रतिमा यदि उत्तमाङ्ग विकल हो जाय तो वह सुधरा कर के भी पूजने योग्य नहीं हो सकती। अस्तु. ५ नवीन वीरप्रतिमा, और प्रशस्ति लेख श्रीमहावीरस्वामी की नवीनप्रतिमा की पालगठी की बैठक पर नीचे मुताबिक लेख खुदा हुआ है " श्रीविक्रमात्संवत् १९५६ वर्षे वैशाखसुदि १५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) पूर्णिमा तिथौ गुरुवासरे मरुधरायां श्रीराष्ट्र०वंशीय महाराजाधिराज श्रीसरदारसिंहजीराज्ये कोरटाधिपति लाखावत देवडाराज श्रीविजयसिंहवर्तमाने सीयाणा वास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय वृद्धशाखायां श्राद्धपोमाजी, तत्सुतलुंबाजीत्कन श्रीमन्महावीरतीर्थाधिपबिंब कारापितं । प्रतिष्टितं भारत्नसूरीश्वर, तत्पट्टे क्षमासूरि त. देवेन्द्रसूरि त० कल्याणसूरि त० श्रीविजयप्रमोदसूरि त० प्रभावक श्रीविजयराजेन्द्रसूरिमहाराजैः कोरटानगरे लि० मोहनविजयेन, सुधर्मवृ० तपागच्छे ।" प्रतिष्ठा के समय वाचक श्रीमोहनविजयजी १ साँबूजा ( मारवाड़ ) में जन्म सं० १९२२ भाद्रवा वदि २ गुरुवार । जाति राजगुरब्राह्मण (पुरोहित ), पिताबदीचंदजी, माता लक्ष्मीदेवी, और गृहस्थपन का नाम मोहनलाल । जावरा ( मालवा ) में लघुदीक्षा सं० १९३३ माह सुदि २ गुरुवार, और कुक्सी (नीसार) में बड़ी दीक्षा सं० १९३६ मगसिर वदि २ । लघु और बड़ी-दीचा तथा शिवगंज ( राजपुताना ) में सं० १६५९ फागुण सुदि २को पन्यास पदवी ये तीनों श्रापको श्रीराजेन्द्रसरिजी से ही मिलीं। राणापुर (झाबुवा) में उपाध्यायपदवी सं० १९६६ पोषसुदि ८ बुधवार, और स्वर्गवास सं० १९७७ पोषसुदि ३ बुधवार कुक्सी (नीमार ) में । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) रचित एक प्रशस्ति लेख भी लगाया गया था, जो ९ आर्या छन्दों में है। प्रशस्ति का मतलब यह है कि-'वीरनिर्वाण से ७० वर्ष बाद रत्नप्रभाचार्यने विद्याबल से दो रूप करके ओसिया और कोरटा में महावीरमन्दिर-प्रतिमा की प्रतिष्ठा एक ही लग्न में की थी। कोरटा में विद्यमान महावीर बिंब विकलाङ्ग होने से उसको उठा कर, उसके स्थान पर देवड़ा ठाकुर विजयसिंहजी के समय में सं० १९५९ वै० सु० पूर्णिमा के दिन वृषभलग्न में अंजनशलाका करके श्रीराजेन्द्रसूरीश्वरजीने नवीन महावीर १ भरतपुर ( राजपुताना ) में जन्म सं. १८८३ पोष सुदि ७ गुरुवार । पिता-ऋऋषभदासजी पारख । माता-केशरीवाई । गृहस्थापन का नाम रतनलाल । उदयपुर (मेवाड़) में पारमेश्वरीदीक्षा सं० १९०३ वैशाखसुदि ५ शुक्रवार और सं० १६०६ वैशाखसुदि ३ सोमवार के दिन बडी दीचा सह पंन्यास पदवी श्रीहेमविजयजी महाराज के पास ली। माहोर ( मारवाड़) में सं० १९२३ वैशाखसुदि ५ बुधवार के दिन प्रापको श्रीविजयप्रमोदसूरिजी महाराजने प्राचार्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) प्रतिमा स्थापन की। कोरटा निवासी मोखा के पुत्र कस्तूरचंद जसराज मूताने ७०१) देकर नूतन वीरप्रभु की प्रतिमा विराजमान की। हरनाथ टेकचंदने ३५१) देकर महावीर मन्दिर पर कलश चढ़ाया। पोमावा गांव के रहनेवाले शेठ खूमाजीने ६५१) देकर धजा चढ़ाई, और कलापुरा (शिवगंज) वाले रतनाजी ओसवाल के पुत्र हीरा, चेना, नवला तथा कस्तूरचंदने २८१) देकर दंड चढ़ाया।" ६ कोरटानगर की पूर्व जाहोजलाली किसी समय इस नगर में हजारों जैन और जैनेतर कुटुम्ब निवास करते थे और वे धनसम्पत्ति तथा सुखसमृद्धि में भी (श्रीपूज्य ) पदवी दी। सं० १९२५ आषाढवदि १० बुधवार के दिन जावरा (मालवा ) में मापने क्रियोद्धार किया और राजगढ़ (मालवा ) में सं० १९६३ पोषसुदि ६ गुरुबार की रात को पाठ बजे 'ॐ अहम् ' का जाप करते हुए भाप का निर्वाण (स्वर्गवास) हुमा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) परिपूर्ण थे। उपदेशतरंगिणी ग्रन्थ के द्वितीय तरंग में लिखा है कि___" एकदा कोरंटकपुरे श्रीवृद्धदेवसूरयो विक्रमास्सं० १२५२ वर्षे चातुर्मासी स्थिताः, तत्र मंत्री ना. हडोलघुभ्राता सालिगस्तयोः ५०० कुटुम्बानाश्च प्रतिबोधस्तत आश्विनसुदि पापनवम्यां तैर्गुरव उक्ताःप्रभो! अस्माकं गोत्रदेवी चंडिकाधिष्ठातृ सा महिषं मार्गयति किं करिष्यते ? गुरुभी रात्रौ चण्डिका प्रत्यक्षीकृत्योक्ता-त्वं पूर्वभवे श्रीपुरे धनसार व्यवहारिबधू श्राविका पंचमीदिने धौतिकानि परिधाप्य बालं पुत्रं वञ्चयित्वा देवगृहं प्रतिचलिता । पुत्रो दृष्ट्वा निर्यान्तीं त्वां लग्नो जल्पति स्म तदवसरे महिषस्त्रस्तः, तेन पातितो मारितश्च तव पुत्रः, पुत्राा त्वमपि मृता चण्डिका जाता। पूर्वभववैरान्महिषानपरान् किं मारयसि ? दयां भज, शान्ता भव ? सा पाह-बहुलकर्माऽहं जीप. वघं त्यक्तुं न शक्नोमि। तर्हि मंत्री नाहडगृहं त्यज? तया तथा कृतम् । मंत्रिणा दृढ धर्मरंगेण ७२ जैनविहाराः 'नाहड़वसही' प्रमुखाः कारिताः कोरंटकादिषु, प्रतिष्ठिता श्रीदेवमूरिभिः सं० १२५२ वर्षे, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) मंत्रिणा यावज्जीवं जिनपूजाद्यभिग्रहो गृहीतः भोजनस्य प्राक् । पृष्ठ १०२, मुद्रित -आचार्य वृद्धदेवसूरिजी सं० १२५२ में कोरंटकनगर में चौमासे रहे और मंत्री नाहड और उस के लघु भाई सालिग के पांच सौ कुटुम्बों को प्रतिबोध दिया-जैनी बनाया। उनने आश्विनसुदि ९ के दिन गुरु से प्रार्थना की किप्रभो! हमारी कुलदेवी चंडिका है, वह भैंसे का बलिदान मांगती है तो अब हम क्या करेंगे? वृद्धदेवसूरिजीने रात्रि में चंडिका को प्रत्यक्ष कर के कहा कि तुं पूर्वभव में श्रीपुर नगर में धनसार सेठ की स्त्री थी। पांचम के रोज तुं शुद्ध वस्त्र पहन कर और अपने बाल पुत्र को फुसला कर दर्शन करने को मंदिर गई। पीछे से बालक भी रोता हुआ आ रहा था, इतने में खीजे हुए किसी भैंसेने बालक को गिरा दिया, जिससे वह मर गया। पुत्र शोक से तूं भी मर कर चंडिकादेवी हुई। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) अब तुं पूर्वभव के वैरसे विचारे दूसरे भैंसों का प्राण क्यों लेती है ? दया और शान्ति का आश्रय ले । चंडिकाने कहा- मैं बहुलकर्मा हूं, अतः जीव वध करना किसी प्रकार नहीं छोड सकती । गुरुने कहा- यदि ऐसा ही है तो नाहड के घर को छोड़ । आचार्य के कहने से मंत्री को कुटुम्ब के सहित सदा के लिये छोड़ दिया । मंत्रीने अभिवर्द्धित भाव से कोरंट आदि नगरों में 'नाहडवसहि' प्रमुख ७२ जिनालय बनवाये, उनकी प्रतिष्ठा संव० १२५२ में श्रीबृद्धदेवसूरिजी से करवाई और मंत्रीने भोजन के पहले जिनपूजादि करने का अभिग्रह लिया । इस आख्यान से साफ जाहिर होता है कि कोरंटनगर में सं० १२५२ में अकेले नाहड और सालिग मंत्री के ही पांचसौ कुटुम्ब रहते थे तो इतर कितने कुटुम्ब निवास करते होंगे ? यह भी किं. वदन्ती प्रचलित है कि कोरंटक में नाहड़ - सालिग के पहले भी वृद्धदेवसूरिजीने तीस हजार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुटुम्बों को जैनी बनाया था। अतएव विक्रम की १३ वीं सदी में कोरटा की जाहोजलाली बड़ी विशाल और समृद्ध थी ऐसा सिद्ध होता है। श्रीमुनिसुन्दरसूरिविरचित गुर्वावली में लिखा है किवृद्धस्ततोऽभूत् किल देवसूरिः. शरच्छते विक्रमतः सपादे । कोरंटके यो विधिना प्रतिष्ठां, __ शङ्कोर्व्यधान्नाहडमन्त्रिचैत्ये ।। --विक्रमसं१२५में वृद्धदेवसूरिजी हुए, जिन्होंने कोरंटनगर में नाहडमंत्री कारित मन्दिर की छाया-लग्न से विधि पूर्वक प्रतिष्ठा की। विक्रमसं१९४० की मुद्रित जैनतत्त्वादर्श की हिन्दी आवृत्ति के पृष्ठ ५७० में लिखा है कि 'सामन्तभद्रसूरि' के पाट पर श्रीवृद्धदेवसूरि हुए, तथा श्रीमहावीर से ५९५ वर्ष पीछे कोरंट नगर में नाहड नामा मंत्रीने मन्दिर बनवाया।' इन दोनों उल्लेखों से जान पड़ता है कि उपदेशतरंगिणी में लिखित वृद्धदेवसूरि और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्री नाहड़ जुदे हैं क्योंकि उपदेशतरंगिणीकारने इनका समय १२५२ बतलाया है और ऊपर के उल्लेखों में वि०सं १२५ (वीरसं५७५) बताया है, जो दोनों के पृथक्त्व का द्योतक है। इसके निर्णय का भार हम पाठकों के ऊपर ही छोड़ देते हैं। अफसोस है कि एक दिन जिस कोरटा की जनसमृद्धि का कोलाहल विस्तृत आकाश को भी गंजित करता था।वहाँ आज उतने कौओं का भी कलरव सुनाई नहीं देता। इसको काल कराल की कुटिल-गति नहीं तो और क्या कहना चाहिये? एक कविने ठीक ही लिखा है किजे महान् वीरोनी वसुधा पर हाक हती, फूंके जेनी पहाड फाटे कुच ते करी गया। लोहकोट जेवी जेनी फरती अजित सेना, तेना हाथ हाथी दूत देवना हरी गया ॥ विजयपताका महिमंडले उडावी जेओ, हेम हीरा माणिकना भंडार भरी गया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) बगीचा फुआरा मोटा महेल बनाव्या पण, थोडो काल वसी तेमां आखर मरी गया ॥ जेनी झलकाट जोइ आंखो झंखवाइ जाय, भीते जेनी रंग भांत भांतना चढ्या रह्या । मणिमय सोनाना सिंहासनो विछाव्या जेमां, पडदा गलीचा घणा कीमती जड्या रह्या ॥ नारीओ नाजुक महामर्द ज्यां निवास करे, सवार पाला जेनी सदा चोकीमा अड्या रह्या। जेमां सली न संचरे के पंखी न प्रवेश करे, एवा महेलोना खाली खंडेर पड्या रह्या ॥ ७ कोरंटकगच्छ की उत्पत्ति जिस समय कोरंटनगर परिपूर्ण जाहोजलाल (समृद्ध) था, उस समय में इस नगर के नाम से श्री कोरंटक नाम का एक गच्छ भी निकला था। इस गच्छ के मूल उत्पादक आचार्य कनकप्रभसू. रिजी माने जाते हैं, जो उसवंश स्थापक आचार्य श्रीरत्नप्रभसूरिश्वरजी के छोटे गुरु भाई थे। अतएव यह गच्छ भी वीरनिर्वाण से ७० वर्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३ ) के बाद आस पास के समय में निकला मालूम पडता है । इस गच्छ में अनेक विद्वान् समर्थ आचार्य हुए हैं, ऐसा देलवाडा-आबू, पालनपुर, मूंगथाला आदि गाँवों में स्थापित जिन प्रतिमाओं के प्रतिष्ठा लेखों से सिद्ध होता है। आबू देलवाडे पर विमलवसहि के मुख्य मन्दिर में दो कायोत्सर्गस्थ मूर्तियाँ मंडप में स्थापन की हुई हैं। उनके आसन पर लिखा है कि सं० १४०८ वर्षे वैशाखमासे शुक्लपक्षे ५ पंचम्यां तिथौ गुरुदिने श्रीकोरंटकगच्छे श्रीनन्नाचार्यसंताने महं० कउरा भार्या, महं० नाकउ सुत महं० पेथड, महं० मदन, महं० पूर्णसिंह, भार्या पूर्णसिरि, महं० दूदा, महं० धांधल, महं० धारलदे, महं० चापलदेवी पुत्र मोरसिंह, हापा, ऊणसिंह, जाणा, नीछा, भगिनी वा० वीरी, भागिनेय हाल्हा प्रमुख स्व कुटुंबश्रेयसे म० धांधुकेन श्रीयुगादिदेवप्रसादे जिनयुगलं कारितं प्रतिष्टितं श्रीककसूरिभिः । -सं० १४०८ वै० सु० ५ गुरुवार के दिन कोरंटंकगच्छीय नन्नाचार्य की सन्तति में महं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४) धांधुकने अपने कुटुम्बश्रेयोर्थ आदिनाथ के मंदिर में जिनयुगल कराये और उनकी प्रतिष्ठा ककसूरिजीने की । धांधुक का वंश वृक्ष श्रीनन्नाचार्यसन्ताने मंत्री धांधुक भगिनी वीरी . महं० कउरा हान्हा (स्त्री नाकउ) पेड मदन पूर्णसिंह (१ स्त्री पूर्णश्री) (२ चापलदेवी) । धांधल धारलदे पुत्री मोरसिंह, हापा, ऊणसिंह, जाणा, नीछा. कतिपय जिनप्रतिमाओं के प्रशस्तिलेखों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) से जान पडता है कि इस गच्छ में कोरंटतपागच्छ नामकी एक शाखा भी प्रगट हुई थी और यह गच्छ अपनी शाखा के सहित विक्रम की १७, या १८ वीं शताब्दी तक हयात था । वर्तमान में इस गच्छ का अस्तित्व नहीं जान पडता। ८ एक तांबा-पत्र का पता.. यहाँ के वृद्ध लोगों का कहना है कि संवत् १६०१ के आसपास जब इंगलिया मरेठा मारवाड को लूटने के लिये आया, तब वह कोरटा से एक ताँबा पत्र और एक कालिका की प्राचीन मूर्ति ले गया। परन्तु इस समय यह ताँबा-पत्र अनूपलब्ध (मिलना कठिन) है। यहाँ के निवासी प्रतापजी जैन गृहस्थ के घर के चोपड़ों में इस नगर के विषय में १४ ककार इस प्रकार मिलते हैं कि १ कणयापुर, २ कनकधर राजा, ३ कनैया कुमर, ४ कनकावती राणी, ५ कनकेश्वर मूता, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) ६ कालिकादेवी, ७ केदारनाथ, ८ कांबी वाव, ९ ककुआ तलाव, १० कलर वाव, १९ केदारिया ब्राह्मण, १२ कनकावली वेश्या, १३ कृष्णमंदिर, और १४ केशरियानाथ । इन १४ ककारों में से इस समय १ कालिकादेवी, २ काँबी वाव, ३ केदारनाथ, ४ ककुआ तलाव, ५ कलर वाव, ६ कृष्णमंदिर और ७ केशरियानाथ; ये ७ ककार यहाँ मौजूद हैं । कृष्ण - मंदिर ब्रह्मपुरी, या कोरटा गाँव के बीच में, कालिका माता और ककुआ तालाव गाँव से लगते हो दक्षिण में हैं, काँबीवाब और केदारनाथ कोरटा से पूर्व-दक्षिण कोण में आधा माइल दूर है, कलरवाव धोलागढ और बांमणेरा के बीच हैं जो लुप्तप्राय हैं । केशरियानाथ का मन्दिर तो इस समय यहाँ पर नहीं है, लेकिन केशरियानाथ की पुरानी सर्वाङ्ग सुन्दर प्रतिमा: नवीन जिन-मन्दिर में विराजमान है । यहाँ एक यह भी किंवदन्ती प्रचलित है www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) कि कोरटा में जब आनन्दचोकला का राज्य था, तब उसके महामात्य नाहडने कालिकादेवल, केदारनाथ का मन्दिर, खेतलादेवल, महादेवदेवल और काँबीवाव; ये पांच स्थान भोग्यभूमि के सहित श्रीमहावीरप्रभु की सेवा में अर्पण कर दिये थे। लेकिन वर्तमान में कांबी वाव के सिवाय दूसरा कोई स्थान महावीरप्रभु के अधिकार में नहीं है। उपदेशतरंगिणी ग्रन्थ के लेखानुसार महामात्य नाहड का समय सं० १२५२ के आस पास है। अतः उस समय में यहाँ का राजा आनन्दचोकला होगा। उस समय में जैनों की प्रबलता, और जैनेतरों की निर्बलता हो चुकी थी। इसी वजह से निर्बल जैनेतरों के स्थान महावीरप्रभु को समर्पण करना पडे । यहाँ के कतिपय जैनेतर स्थानों के अस्तित्व से अनुमान भी किया जा सकता है कि विक्रम की १३, या १४ वीं शताब्दी तक कोरटा में जैनेतरों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) की जाहोजलाली अच्छी थी। कितने एक ध्वंसावशिष्ट शिलालेखों से यह भी पता चलता है कि १४, या १५ वीं सीकी में यहाँ जैन और जैनेतर अनेक भावुक यात्रा करने को आते थे। ६ इतर दो प्राचीन जैन मंदिर १ धोलागढ की ढालू जमीन पर एक भव्य शिखरवाला जिनालय बना हुआ है, जो विक्रम की १३ वीं सदी में नाहड के किसी कुटुम्बी का बनवाया जान पडता है। इसमें हाथ, पैर और गले से खंडित आदिनाथजी की मूर्ति मूलनायक तरीके बिराजमान थी, इससे उस खंडित मूर्ति को इसकी भमती में भंडार कर, उसके स्थान पर दूसरी मूर्ति उतनी ही बडी स्थापन कर दी गई है। जिसकी पालगटी के नीचे लिखा है कि___ “संवत् १९०३ शाके १७६८ प्रवर्त्तमाने माघशुक्लपंचम्यां भृगौ कोरटामहाजनसमस्तश्रेयोऽर्थ श्रीऋषभजिनविंबं का०, देवसूरगच्छे, श्रीशांतिसागरसूरिभिः प्र० सागरगच्छे।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९ ) -देवसूरगच्छीय कोरटागाँव के समस्त महाजनों के श्रेय के लिये श्रीऋषभदेवजी के बिम्ब की प्रतिष्ठा सागरगच्छीय श्रीशान्तिसागरसूरिजीने सं०१९०३ माघसुदि ५ मंगलवार के दिन की। इसके मूलनायकजी के दोनों तरफ दो दो फट बड़ी आदिनाथ और शान्तिनाथ तथा बाह्य मंडप में तीन फट बड़ी शान्तिनाथ की मूर्तियाँ स्थापित हैं, जो नवीन हैं। ___२ दूसरा सौधशिखरी जिनालय गाँव में उत्तर-पश्चिम कोण में है, यह कब किसने बनाया इसका पता नहीं। परन्तु अनुमान से जान पडता है कि ऊपर वर्णित ऋषभदेव मंदिर से पुराना है। इसकी नवचोकी के बांये तरफ के एक स्तम्भ पर 'ॐनाढा' अक्षर उकेरे हुए हैं। इसका मतलब जान पड़ता है कि-मंत्री नाहड़ के ढाकलजी नामक पुत्रने यह मन्दिर बनवाया हो। यह उस समय कोरटा जैनसंघ में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) मुख्य होगा इसीसे उसके नामके साथ मंगलसूचक ॐ लगाया गया है। संभव है यहाँ के सब से प्राचीन महावीर-मन्दिर का जीर्णोद्धार भी नाहडपुत्र-ढाकलजीने कराया हो । क्योंकि उसमें भी 'ॐनाढा' यह अक्षर उकेरे हुए पाये जाते हैं। इसका उद्धार विक्रम की १७ वीं सीकी में कोरटा के नागोतरागोत्री किसी महाजनने कराया है और उसके बाद भी समय समय पर इसके कुछ अंशों का उद्धार होता ही रहा है। इसकी नौचोकी की स्तंभलताओं के दो स्तंभों पर विना मिति साल के दो लेख चार चार लकीरों में नीचे मुताबिक उकेरे हुए हैं__ " १ श्रीयशश्चंद्रोपाध्यायशिष्यैः श्रीपद्मचन्द्रोपाध्यायैर्निजजननी सूरी श्रेयोर्थ स्तंभलता कारिता।" " २ श्रीककुदाचार्यशिष्येण भ० स्थूलभद्रेण निजजननी चेहणी श्रेयोर्थ स्तंभलता प्रदत्ता।" पेश्तर इस के मूलनायक श्रीशान्तिनाथ थे, जो उत्तमांगों(गले आदि) से खंडित थे। उनको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१ ) मन्दिर की भमती में भंडार कर, उनके स्थान पर दूसरे पार्श्वनाथजी पीछे से स्थापन किये गये हैं । इनके दोनों बगल में शान्तिनाथ और बाह्य मंडप में दूसरी चार प्रतिमाएँ विराजमान हैं, जो सभी नवीन हैं और उन पर प्रायः एक ही किस्म के लेख हैं। उन में से एक प्रतिमा का लेख नीचे मुताबिक है "संवत १६५५ फाल्गुनवदि५ वांकली वास्तव्य प्रा. वृ० साजसापुत्र धनाभा- गंगा तेन बिंबंकारितं, प्र० कृ० भ० श्रीराजेन्द्रसूरिभिः,प्र० का. जसरूपजीताभ्यां आहोरे सुधर्म वृ० तपगणे ।.' -आहोरनगर में मूता जसरूप जीता कारित अंजनशलाका महोत्सव में सं०१९५५ फा०व०५ के दिन वांकलीगाँव की रहनेवाली जसा सुत धना पोरवाड की स्त्री गंगाने यह बिंब कराया और सौधर्मबृहत्तपागच्छीय विजयराजेन्द्रसूरिजीने इसकी अंजनशलाका की। १० कोरटा में अन्यमत के प्राचीन स्थान १--धोलागढ की पहाडी से लगते . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) कोरटा से पश्चिम-दक्षिण कोण में कालिकादेवी का देवल है, जो विक्रमादित्य के पिता राजा गन्धर्वसेन का बनवाया माना जाता है। अनन्तराम सांकला के बाद कोरटा में मोकल. सिंह नामका एक राजा हो गया है। उसने कालिकादेवी की मूर्ति का प्रत्यक्ष चमत्कार देख कर उसकी कायमी पूजा के लिये, उसके पूजारी को ५०० वीघा जमीन भेट की थी, जो अब तक उसीके वंशजों के कब्जे में हैं। कोरटा के लोगों का कहना है कि प्राचीन कालिकादेवी की मूर्ति मुसल्मानी हमलों में यवनों का स्पर्श हो जाने से रिसा कर झारोली के पहाड में चली गई। उस को यहाँ लाने के लिये अनेक उपाय किये गये, पर वह वापिस नहीं आई । तब उसीके आदेश से उसकी बहिन चामुंडा के सहित उसके स्थान पर कालिका की दूसरी मूर्ति स्थापन की गई, जो अब तक यहीं स्थापित है और यह सं०१३३६ मगसिरसुदि७ के दिन की प्रतिष्ठित है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) २--कालिकादेवल के सामने बाहर के मैदान में एक पतितावशिष्ट महादेव का देवल है । इसमें स्थापित पार्वती की खंडित मूर्ति की बैठक पर लिखा है कि संवत् १३३५ वैशाखसुदि १२ सोमे प्र० जगवरसूनुप्रति० महाराणा श्रीउदयसिंह सपत्नी प्रति० सरूजलदेवी, तया कारिता प्रासादपीतांगमूर्तिः । श्रीसाधयता शुभं भवतु। -सं० १३३५ वै० सु० १२ सोमवार के दिन प्रति० जगवर के पुत्र प्रति० श्रीउदयसिंह महाराणा की दूसरी राणी सरूजलदेवीने यह शंकर का देवल और पार्वती की मूर्ति कराई, श्री को साधन करते हुए, कल्याण कारक हो । ३-कालिकादेवल से आधा माइल दक्षिण में बामणेरा ( ब्रह्मपुरी) गाँव है। इसमें एक लक्ष्मीनारायण का शिखरवाला मन्दिर है, जो वि० १३ वीं सीकी का बना हुआ है । इसमें काले पाषाण की खडे आकार की दो हाथ वड़ी सांवलाजी की मूर्ति बैठी हुई है और इसीके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) सामने मंडप में वीरासन गरुड की मूर्त्ति है, जो सं० १३१९ वैशाखसुदि १५ के दिन इसमें बैठाई गई है । ४ - लक्ष्मीनारायण के मन्दिर से दक्षिण में सूर्यमंदिर है जिसको सं० १२२६ माघसुदि ९ शुक्रवार के दिन महाराजा सामन्त सिंह के समय में जिसपाल के पुत्र उदयसिंहने बनवाया है । इसके मंडप तीन स्तंभों पर के लेखों से पता चलता है कि वि० सं० १२४८ में सूर्यमंदिर का आरंभ हुआ, और सं० १२५६ में यह बनके तैयार हुआ । इस समय यह जीर्णशीर्ण अवस्था में पडा है और इसमें मूर्त्ति वगैरह कुछ भी नहीं है । ५ - सूर्य मंदिर से पूर्व में १०० कदम के अन्दाजन केदारनाथ का मंदिर है, जो सुन्दर शिखरवाला है । इसकी बनावट बिलकुल जैन शिल्पकारी की है और इसमें अब भी कतिपय जैनचिह्न दिखाई देते हैं । इसके नीचे के भाग में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) मजबूत तलघर-भोयरा है और ऊपर के भाग में जैनप्रतिमाओं के बैठने सदृश सुन्दर पव्वासन बना हुआ है। कहा जाता है कि इसके वारसाख में जैनप्रतिमा थी, जो तोड़कर गणेशाकार बना दी गई है । कतिपय वृद्ध लोगों का यह भी कहना है कि प्राचीन समय में यहाँ धातुमय जिनप्रतिमाएँ विराजमान थीं, परन्तु जैनों का बल कम होने से जैनेतरोंने जिनप्र. तिमाओं को गला कर, उसका नागफणसहित शंकर बना डाला, जो इस समय तलकर में स्थापित है। कुछ भी हो यह मन्दिर निःसन्देह जैनों का ही है। इसका शिखरवाला भाग तालाबंद रहता है और वह प्रायः खोल के किसी को बताया नहीं जाता। ६-कोरटा गाँव में एक शिखरबद्ध चारमुजा का मंदिर है । इसमें दो फुट बड़ी खडे आकार की रणछोडजी (कृष्ण) की मूर्ति स्थापित है । इसकी बैठक के नीचे लिखा है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) " संवत् १२४१ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १५ गुरौ दिने श्रीरणछोडजी प्रसादात्सूत्र० मंडनसुत हाजा, पुत्र तेजसी पुत्र कला कारापिते श्रीकोरटान गरे । 39 -- सं० १२४१ जेठसुदि १५ गुरुवार के दिन सूत्रधार ( सलावट - कडिया ) मंडन पुत्र हाजा, तत्पुत्र तेजसी के पुत्र कलाने यह मंदिर और रणछोड़ की मूर्त्ति कराई कोरटानगर में । " ७ - इनके अलावा ' बोकीवाव ' जिसका जल खारा है, तथा नदी के बीच में 'अलावटा' कुंड जिसका जल मीठा और हलका है अपने प्राचीन गौरव को अब तक स्मरण करा रहे हैं । ये जलाशय सदैव सजीवन रहते हैं और वारिश न होने पर भी इनका जल कभी खूटता नहीं है । ८- इसी प्रकार खेतलादेवल और बागेसर महादेवदेवल भी यहाँ की प्राचीनता का स्मरण करानेवाले हैं । वागेसर का देवल कोरटा से पूर्व में ३ माइल के फासले जबाँई नदी के बांये किनारे पर है और खेतलादेवल कोरटा गाँव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) में ही है। यहाँ दूसरे भी इतने प्राचीन स्थान हैं कि जिन्हों का प्राचीन हाल जानना भूलभुलैया का खेल हो रहा है। ११ प्राचीन जिनप्रतिमाएँ प्रगट हुई सब से प्राचीन महावीर-मन्दिर के कोट का सम्मारकाम कराते हुए बाँये तरफ की जमीन के एक धौरे को तोडने से उसके दो हाथ नीचे सं०१९११ जेठसुद्धि के दिन बादामी रंग की ५ फुट बड़ी आदिनाथ भगवान् की पद्मासनस्थ, और उतने ही बड़े संभवनाथ तथा शान्तिनाथ के दो काउसगिये (खडे आकार की मूर्ति) एवं तीन प्रतिमाएँ निकली थीं, जो सर्वाङ्गसुन्दर हैं । दोनों काउसगियों के आसन पर एक ही मतलब का नीचे मुताबिक लेख खुदा हुआ है-- " सवत् ११४३ वैशाखसुदि २ बृहस्पतिदिने श्रीवीरनाथदेवस्य आवको रामाजरूकः कारयामास, सह्येवं देवी मनातु श्रीअजितदेवाख्यसूरिशिष्येण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) सूरिणा श्रीमद्विजयसिंहेन जिनयुग्मं प्रतिष्ठितं बृहद्गच्छे ।" ___ --वि०सं०११४३ वैशाखसुदिर गुरुवार के दिन महावीरदेव के श्रावक रामा जरूकने ये जिनयुगल कराये,तथा देवी मनातुने उनको स्थापन किये और बृहद्गच्छीय अजितदेवाचार्य के शिष्य आचार्य विजयसिंहसूरिजीने उनकी प्रतिष्ठा की। इसी प्रकार महावीरमन्दिर के पीछे २० कदम पर 'नहरवा' नामक स्थान की जमीन खोदते समय सं०१९७४ में अखंडित तोरण और धातुमय छोटी जिनप्रतिमाएँ निकली थीं। समय समय पर कोरटा कसबे की आस पास की जमीन से अब तक कोई ५० जिनमूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं । ये सभी मूर्तियाँ गाँववाले नवीन जिनालय में रक्खी हुई हैं। ये सभी धातुमय मूर्तियाँ स०१२०१ से १५३४ तक की प्रतिष्ठित हैं और उनके प्रतिष्ठाकार देवसूरि, शांतिसूरि, जजगसूरि आदि जुदे जुदे आचार्य हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९) यहाँ के जैन और जैनेतर लोगों का कहना है कि-यदि वीस पच्चीस हजार रुपया लगा कर कोरटा कसबे के आस पास की जमीन का खोद काम कराया जाय, तो अनेक पुरानी जिनमूर्तियाँ निकलने की संभावना है । - जिस समय दो काउसगियों के सहित भगवान् श्री ऋषभदेवजी की प्रतिमा प्रगट हुई थी, उस समय उनके दर्शनों के लिये अनेक गाँवों के भावुक उपस्थित हुए थे। केशर की आवक अन्दाजन १३५२॥-)॥ रुपयों की हुई थी। बाद में सर्वानुमत से तीनों मूर्तियाँ कोरटा के प्राचीन उपाश्रय में स्थापन की गई थीं। अन्दाजन चौदह वर्ष तक ये उपाश्रय में रही, परन्तु उपाश्रयं का जब सुधार काम जारी हुआ, तब तीनों प्रतिमा दूसरे मकान की कोठरी में पथराई गई। इस 'मकान में भी ये मूर्तियाँ चौतीस वर्ष पर्यन्त पूजाती रही है ..... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) १२ अतिरमणीय नया मन्दिर और प्रतिष्ठा भूमिनिर्गत उक्त प्रतिमाओं को विराजमान करने के लिये एक अच्छा नया मन्दिर बनवाने का विचार यहाँ के संघने किया और तदनुसार सर्वानुमत से कोरटा कसबे के पूर्व किनारे पर शुद्ध जमीन का पट्टा कराके विकसं०१९२५ में मन्दिर की नीम (पाया) का मुहर्त किया। बाद में बराबर काम जारी रहने से अन्दाजन वीस वर्ष में मंडप के सहित मंदिर का विशाल शिखर तैयार हो गया। अब संघ का विचार हुआ कि प्रथम प्रतिष्ठा करा ली जाय, शेष काम फिर होता रहेगा । परन्तु ' श्रेयांसि बहु विघ्नानि' इस नियम के अनुसार संघ में पारस्परिक कलह के कारण तड़बंधी हो गई, इस से प्रतिष्टा सबन्धी विचार योंही पड़ा रह गया। इसी अरसे में जैनाचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज अपनी शिष्यमंडली और कतिपय भावुकों के सहित कोरटाजी तीर्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) की यात्रा करने के लिये पधारे । आचार्य महाराज के पधारने से कोरटा-संघने आनन्दित होकर उनका अच्छा स्वागत किया। आचार्यश्री की माङ्गलिक धर्मदेशना से सभी संघ के हृदय कोमल बन गये और उनके हृदय में अपने आप यह भावना हो उठी कि “ अपने को यह समय स्वर्णमय मिला है, और ऐसे समय आचार्य का योग वार वार मिलना दुर्लभ है । अतः ऐसा सुअवसर मिलने पर यदि कोई लाभ कारक कार्य कर लिया जाय तो अच्छा है।" इस प्रकार की स्वच्छ मनोभावना के उद्भव होते ही पारस्परिक कलह को भूल कर प्रतिष्ठा विषयक विचार करने को सब संघ भोजन जीमने के पश्चात् इकट्ठा हुआ। कुछ देर तक घट-भंजन किये बाद, सभी इस विचार पर स्थिर हुए कि “ यदि अच्छा मुहूर्त आ जाय तो प्रतिष्ठा कार्य को किया जाय, यदि इसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) मुहूर्त्त में कुछ नवीन मूर्त्तियाँ जयपुर से मंगा कर, उनकी अंजनशलाका भी करा ली जाय तो अच्छा है । " बस अपने स्थिर निर्णय के बाद संघने आचार्य महाराज के पास आकर अर्ज की कि गुरुवर ! प्राचीन प्रतिमाएँ कई वर्षो से अधर बैठी हुई हैं और कच्चे मकान के कारण उन पर धूला, पानी गिरने से आशातना भी बहुत होती है । इधर नवीन मंदिर भी बन के तैयार हो गया है । अतएव सब संघ की मरजी है कि- प्रतिष्ठा और अंजनशलाका का साथ ही अच्छा मुहूर्त्त मुकरर्र करिये । " 66 : आचार्यश्रीने फरमाया कि-“ ¿ यह तो सब ठीक है परन्तु सब से पहले संघ को पट्टी का वैमनस्य मिटाने का प्रयत्न करना चाहिये, क्यों कि वह इस मौके पर न मिटेगा तो प्रतिष्ठा: उत्सव में जो आनंद आना चाहिये वह ''नहीं' आ सकेगा । अतएव प्रथम पट्टी के गाँवों में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) से दो दो, चार चार मुखियाँओं को बुला कर यहाँ भेले करो । प्रतिष्ठांजनशलाका का मुहर्त भी उनके समक्ष में निश्चित हो जायगा।” । आचार्यश्री की आज्ञानुसार संघ के कायम किये हुए आदमी उसी वख्त पट्टी के गाँवों में बुलाने को गये कि विना विलम्ब एक ही दिन में सब गाँवों के दोदो, चार चार मुखिया कोरटा में हाजिर हो गये। आचार्य महाराज के इजलास में जाजम हई और आचार्यश्री के उपदेश से सब एकमत हो गये। बस आचार्य महाराजने — सं०१९५९ वै० सु० पूर्णिमा के दिन प्रतिष्टा और अंजनशलाका करने का मुहूर्त नक्की किया।' : शीघ्र ही सम्मिलित संघने एक कमेटी नियत करके, उसके.मार्फत बम्बई और अहमदावाद से प्रतिष्ठांजनशलाका और मंडप योग्य सरसामान मंगवाया.। मुद्रित आमंत्रण-पत्रिकाएँ भी देश परदेश में सर्वत्र भेज दीं। स्वर्ग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) विमान के समान शुशोभित मंडप तैयार कराया और जयपुर से अन्दाजन ३०० नवीन जिनमूर्तियाँ मंगवाईं । प्रतिष्ठोत्सव में आगत दर्शकों के जान-माल के संरक्षण का काफी प्रबन्ध किया गया। सब तैयारी होने बाद वैशाखशुदि ५ से विधि विधान बड़ी सावधानता से आचार्यश्रीने कराना शुरू किया। इसीके दरमियान वै० सु० ११ के दिन रात्रि को कतिपय धर्मद्वेषियों की उस्केरणी से एक धर्मान्ध यतिने मंडप के ऊपर सुलगता हुआ एक पलीता फेंका । इस कारण लोगों में महान् कोलाहल मच गया।कुछ सभ्य लोगोंने आचार्य महाराज को यह हाल सूचित किया। आचार्यश्रीने फरमाया कि-"कोई फिक मत करो, मंडप को अंशमात्र हरकत पहोंचनेवाली नहीं हैं । जो खोटा चाहेगा उसीका खोटा होगा । जाओ पलीता वापिस लौट गया और वह फेंकनेवाले के पीछे लगा है।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) सच मुच ही लोगोंने जा कर देखा, तो मंडप में पूर्ववत् आनन्द हो रहा है और वह पलीता उछल उछल कर फेंकनेवाले कुटिल यतिको जानमाल के खतरे में डाल रहा है। आखिर लाचार हो कर उस फेंकनेवाले यतिने आचार्य महाराज के पास माफी मांगी, तब कहीं उस पलीते से यति का छुटकारा हुआ । इस प्रत्यक्ष चमत्कार को देख कर लोग आश्चर्य निमग्न हुए और जय जयारवों से आचार्य महाराज को धन्यवाद देने लगे। अस्तु. इस प्रकार आनन्दोत्साह पूर्वक सं०१९५९ वैशाखसुदि पूर्णिमा गुरुवार के दिन वृषभलग्न में नवीन मन्दिर की प्रतिष्ठा करके उसमें दो काउसगियों के सहित श्रीऋषभदेवस्वामी की प्राचीन मूर्ति को जैनाचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने स्थापन कराई, और ३०० नूतन जिनप्रतिमाओं की अंजनशलाका की। प्रतिष्ठोत्सव के अन्तिम दिन में कोरटा के ठाकुर श्रीविजयसिंहजी को आचार्य महाराजने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश देकर, यात्रियों के सुभीते के लिये नवीन मन्दिर के सामने की जमीन का पट्टा कराके, कोरटासंघ को दिलाया। संघने उस स्थान पर विशाल धर्मशाला बनवाई है, जो मौजूद है और उसमें करीबन हजार यात्री ठहर सकते हैं। इस मन्दिर के मंडप में दहिने तरफ की भीत पर तीन फुट बड़ा और एक फुट चौड़ा एक प्रशस्ति लेख लगा हुआ है, जो १८ संस्कृत आर्या छंदों में है और उसको मोहनविजयवाचकने बनाया है। उसमें लिखा है कि मारवाडदेशाधिप सिरदारसिंह राठौड़ के राज्य में एरनपुरारोड़ से ६ कोश दूर कोरंटकपुरी (कोरंटागाँव) है। इसकी सुरक्षा विजयसिंहजी ठाकुर करते हैं, जो देवडा सरदार हैं। कणयापुर, कोलापुर, कोरंटकपुर; ये इस कसबे के प्राचीन नाम हैं। उपदेशतरंगिणी आदि ग्रंथों से जान पड़ता है कि-वृद्धदेवसूरिजीने यहाँ सं०१२५२ का चातुर्मास करके नाहडमंत्री(द्वितीय) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७ ) के छोटे भाई सालिग के ५०० कुटुम्बों को जैनी बनाया था। मंत्री सालिगने कोरंटक आदि नगरों में नाहडवसहि प्रमुख ७२ जिनमंदिर बनवा के, उनकी प्रतिष्ठा वृद्धदेवसूरिजी के हाथ से करवाई थी। कोरटा के समीप बांभेणरा की पहाड़ी के नीचे वीरप्रभु का प्राचीन मंदिर है। उसके कोटके वामभाग की जमीन खोदते हुए सं० १९११ जेठसुदि८ के दिन शान्तिनाथ और संभवनाथ के काउसगिया सहित ऋषभदेवजी की अति मनोहर प्रतिमा प्रगट हुई १-८ इन प्राचीन प्रतिमाओं को विराजमान करने के लियेकोरटा-संघने सुन्दर शिखरवाला मंदिर बनवाया। इसकी प्रतिष्टा सौधर्मबृहत्तपामच्छीय-श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने सं० १९५९ वैशाखसुदि १५गुरुवार के दिन वृषभलग्न में की, और उसी समय कतिपय नूतन जिन प्रतिमाओं की भी अंजनशलाका की ९-१२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) जोगापुरावाले दला सूरतिंगने ८५१ ) देकर, नूतन मूर्तियों पर अपना नाम रखवाया । पोमावावाले हट्टा दीपा और मोटा आइदानने ६५१) देकर, प्राचीन ऋषभदेवजी की प्रतिमा स्थापन की। हरजीवाले पूनमचंद दाना पन्नाने १२५१) देकर, स्वर्ण-कलश, तथा ६२५) देकर स्वर्णदंड चढ़ाया। पोमावावाले नवलाढूंगाने १३०१) देकर, धजा आरोपण की। वन्ना-राजा नवा-वरदा भूता, भगा धूडा पीथाणी और हकमा सरजमलने वै०स०१५को नवकारसी की. वै० सु०१४ को भगा सूरतिंग ओसवालने नवकारसी की, और कोरटा-संघने अष्टाह्निका उत्सव तथा वै० सु०१३ को नवकारसी की; १३-१८ १ कोरटाजी से दक्षिण में दो कोश सिरोही स्टेट का गाँव । २ कोरटाजी से पूर्वोत्तरकोण में कोरटा जागीर का गाव । ३ जोधपुर स्टेट की जालोर हुकुमत का अच्छा माबाद कसबा जिसमें श्वेताम्बर जैनों के तीनसौ घर हैं और जो कोरटाजी से पश्चिम में ७ कोश है। ४-५ कोरटा के रहनेवाले सद्गृहस्थ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९) १३ राज्य परिवर्तन कोरटा जागीर पर प्राचीन काल में किस किस राजा का अधिकार रहा ? यह बतलाना लेखिनी से बाहर है। परन्तु प्राप्त सामग्री से जान पडता है कि-कुछ शताब्दियों के पहले इस जागीर पर भीनमाल के राजाओं का अधिकार रहा । विक्रम की ९वीं सीकी में भीनमाल पर रणहस्तीवत्सराज का राज था, लेकिन उन के वंशजों का इतिहास प्रकाश में नहीं आया। सं०१२३९ में जयंतसिंह का, सं०१२६२ से १२७४ तक उदयसिंह का, सं०१३३३-३४ में चारित्रदेव का, और सं० १३३९ से १३४५ तक सामंतसिंह का भीनमाल पर राज्य था। संभव है कि इन राजाओं का भी कोरटा जागिर पर राज्य रहा होगा। बाद में चन्द्रावती और आबू के परमार राजाओं का, उसके बाद अणहिलवाडा (पाटण) के चावडा और सोलंकियों का बाद में नाडोल तथा जालोर के सोनगरा चौहानों का कोरटा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागीर पर अधिकार रहा । सं० १६५३ में यह जागीर सिरोही के. देवडा चौहानों और उसके बाद आंबेर तथा मेवाड़ के. महाराणाओं के अधिकार में चली गई ! __ सं०१८१३ से १८१९ के दरमियान महाराणा उदयपुर को महरबानी से कोरटा जागीर पांच गाँवों के साथ वांकली के ठाकुर जूंजारसिंह के पुत्र रामसिंह को मिली। गोडवाड परगना जब जोधपुर (मारवाड) के तरफ आया तब जोधपुर के महाराजा विजयसिंहजीने सं० १८३१ जेठवादि १२ के परवाने से ठाकुर रामसिंह को कोरटा १ बांभणेरा २, पोइणा ३, नारवी ४. पोमावा ५, जाकोडा और वागार, इन ७ गाँवों की सनंद कर दी, जिससे रामसिंह के तरफ अपने वंट की वांकली गाँव की जागीर और कोरटा पट्टे की जागीर रही, जो अब तक उसीके वंशजों के अधिकार में है। कोरटा के वर्तमान ठाकुर छगनसिंहजी हैं। उनका बंशवृक्ष नीचे मुताबिक है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat विट्ठलदासजी चूंजारसिंहलीः १. समसिंह, हिन्दुसिंह, हाथीसिंह, हेमराज, शिवसिंह, शार्दूलसिंह, रायसिंह. र कीरतसिंह, शेरसिंह * भूपत सिंह, प्रनारसिंह, शश्वदान, बोखसिंहः । www.umaragyanbhandar.com शार्दलसिंह, लालसिंह, जोधसिंह, सबलसिंह, कन्याणसिंह, लक्षमणसिंह ई. विजयसिंह, समर्थसिंह, उमेदसिंह, जसवंतसिंह । कानसिंह, शिवनाथसिंह, थानसिंह रणजीतसिंह : मोहनसिंह, चतरसिंह पसिंह, पदमसिंह Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) १४ कोरटा की वर्तमान अवस्था बाल, युवा और जरा अवस्था का चक्र जिस प्रकार मनुष्यों पर घूमता रहता है, उसी प्रकार संसार के सभी पदार्थों पर उसका चक्र भ्रमण किये विना नहीं रहता। आर्यों का पूर्व इतिहास, रोम आदि बलवान् राज्यों का इतिहास और अंग्रेजी प्रजा का इतिहास देखोगे तो पता लगेगा कि उन्नति और अवनति का चक्र बराबर घूमता ही रहा है। इसीसे माना जाता है कि जिस सांसारिक पदार्थ की एक दिन उन्नति है, उसके लिये अवनति के दिन भी नजीक ही समझना चाहिये। ____ इसी कुदरती नियमानुसार जो कोरंटक नगर एक दिन अपनी जन, धन और सुख समृद्धि से सारे भारतवर्ष को चकित करता था, और निज समृद्धि के लिये लोगों को लालायित बनाता था, वही कोरंटक आज असभ्यता, अज्ञान और निर्धनता का केन्द्र बन गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतना ही नहीं किन्तु, जान-माल के संरक्षण का भय पैदा करनेवाले भील और मीणाओं का स्थान बन गया है। इस समय कोरटाजी में न कोई सभ्य मनुष्य है और न सभ्य बनने का कोई साधन है । एक कवि महाशयने ठीक ही कहा है किकहे रहा है आस्मां यह, सब समां कुछ भी नहीं। यह चमन धोके की टट्टी, के सिवा कुछ भी नहीं। ॥ टेर ॥ तोड डारे जोड सारे, बांध कर बंदे कफन । गोर की बगली में चित है, पहेलवां कुछ भी नहीं ॥ कहे० ॥१॥ जिनके महेलों में हजारों, रंग के फानूस थे। झाड़ उनके कब्र पर हैं, और निशां कुछ भी नहीं ॥ कहे ॥२॥ तख्तवालों का पता, देते हैं तख्ते मोर के। खोज लगता है यहीं तक, वाद जहाँ कुछ भी . नहीं। कहे० ॥३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४ ) उड़ गये तख्ते सुलेमां, कट गये परियों के पर। गर किसीने चार दिन, बांधी हवा कुछ भी - नहीं ॥ कहे०॥४॥ कहते हैं दुनियां में होता, है हरएक दुःखका इलाज। है वयां दरदे जुदाई की, दवा कुछ भी नहीं। ॥ कहे० ॥ ५॥ जिनके डंके की सदा से, गूंजते वे आलमां। मकबरों दम वखुद है, हूं जहाँ कुछ भी नहीं । ॥ कहे० ॥ ६॥ जिस कोरंटक नगर की जनसंख्या करने का साहस सुरगुरु भी नहीं कर सकता था, वहाँ की जनसंख्या आज बालकों की अंगुलियों पर गिनी जाने लायक देखी जा रही है, यह किस सहृदय मनुष्य को उदासीन नहीं बना सकती अस्तु । कोरटा ('कोरंटक नगर) की वर्तमान जनसंख्या जाति वार नीचे मुताबिक है, जो १९८६ जेठवदि १४ (-सन् १९२९ ता०६ जून); को खुद वहाँ जाकर हमने कराई थी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष स्त्रीयाँ १२२ ११३ १३ १५ १४ १० ३५ २३ १५ १४ घर जाति ६७ ओसवाल जैन (वीसा) १६ देवडा सरदार ८ सोनार १ पंचोली ८ गोमतीवार (ब्राह्मण) ६ सुतार १९ मारु कुंभार ८ पुरोहित (ब्राह्मण) २ लुहार २ घरबारी बावा २१ भाट ४ माली २२ राजपूत १ भील ८ बंडा कुंभार १७ सरगडा ६ ढोली ५६ ३७ ८ ४ ३९ ३४ १९ १३ ३६ ४० १४ ११ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) ३ नाई २ साध १ मुसल्मान-छीपा २३ रबारी (भरवाड) १८ ढेडों का भाट १ इसाई १५ दरोगा ३ रावल-ब्राह्मण २ तेली (घांची) २ बंदारा १ सुंआरा १ धोबी ५ गरला ३३ मेघवाल (बांभी) ९१ मेणा १ भंगी ( महतर) or 20 mrrrr . २०९ १८२ ९२१ ८२९ १७५० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) १५ कोटराजी तीर्थ के मेले_यहाँ के श्रीसंघने इस तीर्थ की समुन्नति के लिये प्रतिवर्ष दो मेले कायम किये हैं, जो संवत् १९७० की कार्तिक पूर्णिमा से बराबर चालु हैं । प्रथम मेला कार्तिक सुद १५ और द्वितीय मेला चैत्र सुदि १५ का भराता है। प्रतिमेला में ३००० से १०,००० हजार यात्री तक एकत्रित होते हैं । हरएक मेला पर वीस रोज पहिले मेला निमंत्रणने वाले सद्गृहस्थों के तरफ से छपी हुई आमंत्रण-पत्रिकाएँ देश परदेश में सर्वत्र भेजी जाती हैं । आमंत्रणपत्रिकाओं की नकल नीचे लिखे अनुसार है श्रीहनमः । श्रीकोरटाजी तीर्थ का मेला निमित्ते श्रीसंघ-आमंत्रणपत्रिका । श्रीसिद्धार्थमहीपसूनुतनयात्खाश्वाङ्किते वत्सरे, यद्रत्नप्रभसूरितः कुवलये ख्याति परामीयुषि। राजेते भुवनाधिपो जिनवरौ वीरर्षभौ यत्र तत्, श्रीकोरंटकतीर्थमत्र जयतात्मोदभूतमाहात्म्य युक॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) स्वस्ति श्रीसकलमङ्गलमाणमण्याकरान्निखिलजिनाधीश्वरचरणसरोजान् प्रणम्य समस्तानन्दालये तत्र श्री.... 'नगरे मुक्तिसौधसरणिवीतरागकरगताऽऽज्ञासमुपासक शाश्वतशिवशमैकाऽबन्ध्यनिबन्धनसम्यक्त्वमूलद्वादशव्रतसमाराधकदेवगुरुभक्तिकारक पुण्यप्रभावक सुश्राद्धसद्गुणगणालंकृत समस्तश्रीश्रमणोपासक श्रीसंघचरणान् प्रति सेठजीशा'.. योग्य श्रीकोरटाजी तीर्थ सेलि० शा............. गाँव...........'वाले का सविनय प्रणाम सह नम्र विज्ञापन वांचनाजी। वि. अत्र श्रीदेवगुरु धर्म की कृपा से कुशल मंगल है, आपके वहाँ भी कुशल मंगल चाहते हैं ! वि० वि० यह कि श्रीकोरटाजी का तीर्थ बड़ा प्राचीन और प्रभाविक है। इस तीर्थ में कई प्राचीन मन्दिर हैं। श्रीऋषभदेवजी की प्रतिमा, परमात्मा श्रीमहावीरप्रभु का मन्दिर जिसकी प्रतिष्ठा महावीरपरमात्मा के निर्वाण से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० वें वर्ष में पार्श्वनाथ सन्तानीय श्रीमान् रत्नप्रभसूरीश्वरजीने विद्याबल से ओसियाजी तीर्थ के साथ एक ही लग्न में की थी, यह मन्दिर गाँव से पाव कोश की दूरी पर है, और भी दो मन्दिर हैं । ये सब मन्दिर प्राचीन हैं। ____ इस तीर्थ की यात्रा का मेला हमारी तरफ से ....सुदि १५.......... 'वार का मुकरर किया गया है और साधर्मिक वात्सल्य (नवकारसी) भी हमारे तरफ से उस दिन होगा।आप श्रीसंघ को हमारी आग्रह पूर्वक सविनय नम्र प्रार्थना है कि आप सह कुटुम्ब साधर्मिक भाईयों के परिवार सहित मेले में पधार कर, यात्रा का लाभ लेवें और सम्यक्त्व की निर्मलता के हेतु परमात्मदर्शन का लाभ उठावें और शासन प्रभावना की वृद्धि करें। संवत् १६ लि. श्रीसंघचरणसेवकमिती......."सुदि १५ । शा. बार.... ....... ........"वाले का प्रणाम वाचना. नोट--जो महाशय रेलमार्ग से आवेंगे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) उनको स्टेशन एरनपुरा निकट पडता है, वहाँ से कोरटाजी १२ माइल है। सवारी घोडागाड़ी, टांगा, मोटर, वगेरे सब मिलती है। १६ मेला नोतरनेवाले सद्गृहस्थों की मयखर्च के उल्लेखनीय यादी५००) सा० दलीचंद बागाजी, शिवगंजवाला, सं० १९७० का० सु० १५. १०००) सा० पूनमचंद वन्नाजी, भारुंदावाला, सं० १९७१ का० सु० १५. १५००) सा० सांकलचंद बभूतमल, कोरटाजी वाला, सं० १९७२ का० सु० १५. ३२००) सा० बनेचंद पोमाजी, भन्दर (सिरोही) वाला, सं० १९७३ का० सु० १५. ५०००) सा०किसनाजी रायचंदजी, खिवाणदी वाला सं० १९७५ चै० सु० १५. ४०००) सा० खेमाजी धूलाजी,शिवगंज,(सिरोही) __वाला सं० १९७५ का० सु०१५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५) ४०००) सा० हांसा दीपाजी, कोरटाजीवाला, सं० १९७७ का० सु. १५, ६०००) सा० रायचंद रूपचंद खीमाजी, कोशि लाववाला, सं० १९७८ चै० सु० १५. ३१००) सा० नथाजी केराजी,पोषालिया,(सिरोही) वाला सं० १९७८ का० सु० १५. ५०००) सा० सवाजी मनरूपजी, झारोलीवाला, सं० १९७९ चै० सु० १५. ४५००) सा० रतनाजी राजाजी, पोषालिया वाला सं० १९७९ का० सु० १५. ६०००) सा० पेराज फूलाजी, जोगापुरा (सिरोही) वाला, सं० १९८० चै० सु० १५. ५०००) सा० डूंगाजी ओखाजी, पोषालियावाला, सं० १९८० का० सु० १५. ६०००) सा० वनेचंद मालाजी, पालड़ीवाला, सं० १९८१ चै० सु० १५. १०००) सा० चुन्नीलाल वीसाजी, थांवलांवाला, सं० १९८१ का० सु० १५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) ६०००) सा० किसनाजी केसरीमल, पादरली वाला, सं० १९८२ का० सु० १५. ४०००) सा० सांकलचंद किसनाजी, नोवीवाला, सं० १९८३ चैः सु० १५. १७००) सा० पूनमचंद हिन्दुजी, शिवगंजवाला, सं० १९८३ का० सु० १५ भाता. २०००) सा० देवराज नरसिंगजी, लासवाला, सं० १९८४ का० सु. १५. ६०००) सा० चमनाजी नोपाजी, पालड़ी,(सिरोही) वाला, सं० १९८५ चै० सु० १५. २०००) सा. खूमाजी केसरीमल, लासवाला, सं० १९८५ का० सु० १५ भाता. ४०००) सा० फोजमल वनेचंदजी, खिवाणदी वाला, सं० १९८६ का० सु० १५. उपसंहार जिस प्रकार सिद्धाचल, सम्मेतशिखर, गिरनार, आबू, केशरियानाथ और गोड़वाड़पंचतीर्थी आदि तीर्थ पवित्र और पूजनीय हैं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) उसी प्रकार कोरटाजी तीर्थ भी पवित्र, पूजनीय और प्राचीन है। ऐसे पवित्र तीर्थों की यात्रा करने से आत्मा पवित्र, शान्त, तथा निष्कर्म बनती हैं। शास्त्रकार भी कहते हैं कि-तीर्थयात्रा से आत्मा को पवित्र बनाओ, क्योंकि तीर्थों में भ्रमण करने से संसार का भ्रमण मिटता है, तीर्थमार्ग की रज शरीर पर लगने से कर्मरूप रज दूर होती है और तीर्थों का सं. रक्षण करने से सदा शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है । शुभमिति । श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छनन्दनवनोद्यानविहारि-सूरिपुङ्गवकलिकालसर्वज्ञकन्प-जगत्पूज्य-श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपदपङ्कजसेवाहेवाक-व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनियतीन्द्रविजय-सङ्कलित:'श्री कोरटाजी तीर्थ का इतिहास' नामको निवन्धः समाप्तः । सं० १९८७ चैत्र सुदि १३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट नम्बर १ श्रीकोटाजी तीर्थ के संस्थापक श्री रत्नप्रभसूरिजी महाराज का परिचय - — तेइसवें तीर्थङ्कर भगवान् श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के शिष्य श्रीशुभदत्त गणधर थे। उनके शिष्य श्री केशीस्वामी हुए जो गणधर (आचार्य - पदारूढ ) और प्रदेशीराजा के प्रतिबोधक गुरु थे । उनके शिष्य श्रीस्वयम्प्रभसूरिजी अवनीतल को पवित्र करते हुए एकदा समय श्रीमाल ( भीनमाल ) नगर के बाह्योद्यान में मासकल्प रहे । इसी समय वैताढ्यपर्वत का रहनेवाला मणिरत्न नामका प्रख्यात विद्याधर राजा, आठवें द्वीप के अअनगिरि पर्वत पर शाश्वत जिनचैत्यों को वन्दन करने के लिये एक लाख विमानों के १ उकेश गच्छीय पट्टावली में शुभदत्त के पाट पर ' हरिदत्त ' उनके पाट पर 'आर्यसमुद्र' और उनके पाट पर ' केशीगणधर ' लिखे हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) साथ आकाश-मार्ग से इसी तरफ होकर निकला, नीचे पांचसौ मुनिमंडल सहित स्वयम्प्रभाचार्य को देख कर, राजा मणिरत्न सपरिवार नीचे उतरा और वन्दना करके धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से आचार्य के सम्मुख बैठा । आचार्य महाराजने संसार से विरक्त होनेवाली इस प्रकार की धर्मदेशना दी कि जिसे सुनते ही मणिरत्न पारमेश्वरी दीक्षा लेने को तैयार हो गया, और शीघ्र ही अपने पुत्र को राज्यासन पर बैठा कर, पांचसौ विद्याधरों के साथ स्वयम्प्रभाचार्य के पास दीक्षा ले ली। क्रमशः गीतार्थ हो जाने पर स्वयम्प्रभाचार्यने मणिरत्न को आचार्य पदवी देकर उसका नाम श्रीरत्नप्रभसूरिजी कायम किया। बाद में श्रीरत्नप्रभसूरिजी पांचसौ मुनिमंडल के परिवार से विचरते हुए, ऊकेशनगर में पधारे, यहाँ के लोगोंने आपकी कुछ भी परिचर्या (सेवा) नहीं की। आपके इस अपमान को देख कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) शासनदेवीने शासनोन्नति करने का मानसिक विचार किया। इसी अरसे में इस नगर के रहनेवाले ऊहड नामक सेठने श्रीकृष्ण का अनुपम मन्दिर बनवाना शुरू किया। शासनदेवीने उसमें बैठाने के लिये श्रीमहावीरस्वामी की प्रतिमा ऊहड की गौ के दूध से बनाना शुरू की। सेठ की गाय सायंकाल में गौओं के टोले से जुदी पड़ कर, लावण्यइद-पर्वत में नित्य अपना दूध छोड आती थी, सेठने दूध के अभाव का कारण गोवाल से पूछा । गोवालने सावधानी से निगाह करके उसका सारा हाल सेठ को प्रत्यक्ष दिखलाया । ऊहडने ब्राह्मणों को बुला कर पूछा; उन्होंने उसका भिन्न भिन्न रूप से समाधान किया, परन्तु सेठ को उसके वास्तविक कारण का पता नहीं लगा। भाग्यवश रत्नप्रभाचार्य दूसरी वार विहार करते हुए ऊकेशनगर में मासकल्प रहे । ऊहड प्राचार्य के पास गया, और वन्दना पूर्वक दु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) ग्घाऽभाव का कारण पूछने लगा। आचार्यने कहा इसका असली उत्तर तुमको कल मिल जायगा, ऐसा सुन कर सेठ अपने घर आया। आचार्यने शासनदेवी को बुलाई, उसने प्रत्यक्ष होकर कहा कि सेठ की गौ के दूध से मैं महावीरप्रभु की प्रतिमा तैयार कर रही हूं और वह छः महीने में तैयार होगी, सेठ जो कृष्ण का देवालय बनवा रहा है उसमें मूल नायक तरीके यही प्रतिमा विराजमान होगी। आचार्यने कहा-अच्छा ! तुं यह बात स्वयं अपने मुख से ऊहड के सामने प्रगट करके जाना। तदनन्तर शासनदेवी आचार्य की आज्ञा से ऊहड़ के घर जाकर रात्रि के समय प्रत्यक्ष रूप से उसके सामने सब हाल यथार्थ प्रगट करके अदृश्य हो गई। प्रातःकाल में ऊहडने आचार्य के पास जाकर देवी कथित सब हकीगत कही। आचार्यने फरमाया-सेठ ! देवीने जो कुछ कहा, वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) निःसन्देह सत्य समझना चाहिये। सेठने कहास्वामिन् ! महरबानी करके आप साथ में पधारो सो उस प्रतिमा को बाहर निकाली जाय ? आचार्य ने कहा-सेठ ! यद्यपि प्रतिमा पूर्ण हो चुकी है तथापि शरदऋतु के सात दिन गये बाद अच्छे मुहूर्त में उसको निकाल कर लाना ठीक है । सेठने कहा-आपका फरमाना शिरोधार्य है, परन्तु आप पूज्य, समर्थ और आचार्य हैं, अतएव आपका वचन और आदेश ही शुभ मुहर्त है। इसलिये शीघ्र ही मेरी प्रार्थना को ध्यान में लेकर कार्यरूप में परिणत करना चाहिये। यह बात सुन कर आचार्य महाराज जहाँ पर भगवान् महावीर की प्रतिमा थी, वहाँ पर सेठ के साथ गये। आचार्य के फरमाने मुताबिक सेठने स्वर्णयव से स्वस्तिक कर और पुष्पों से पूजा कर, उस स्थान की जमीन को खोद कर सर्वावयव पूर्ण महावीर प्रतिमा को बाहर निकाली। बाद में सेठ सन्मान पूर्वक उस प्रतिमा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को स्वकारित कृष्ण-देवालय में ले गया और उसकी प्रतिष्ठा के लिये आचार्य से मुहूर्त पूछा । आचार्य महाराजने सर्वदोष रहित माघमास की सुदि ५ गुरुवार के दिन धनलग्न में ब्राह्म मुहर्त कायम किया । आचार्य की आज्ञानुसार ऊहडने प्रतिष्ठा और संघपूजा के योग्य सभी सामग्री एकत्रित करना शुरू की। इसी समय में कोरंटक नगर से संघ की विनती लेकर कतिपय श्रावक रत्नप्रभसूरिजी की सेवा में उपस्थित हुए । उन्होंने वंदना के साथ कहा कि-स्वामिन् ! कोरंटक में संघ के तरफ से सुन्दर जिनालय बनवाया गया है, उस में श्रीमहावीरप्रभु की प्रतिमा विराजमान करने के लिये तैयार है। अतएव अच्छा महर्च दीजिये और इस कार्य को कराने के लिये आप वहाँ पधारिये ऐसी संघ की अर्ज है। संघ की अर्ज को ध्यान में लेकर और मुहूर्त देख कर आचार्य महाराजने फरमाया कि-महानुभावो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८. ) जिस दिन और लग्न में यहाँ की प्रतिष्ठा का मुहूर्त है, वही कोरंटक के मन्दिर की भी प्रति ठा का मुहूर्त है, अतएव यहाँ का कार्य छोड़ कर मेरा वहाँ जाना नहीं बन सकता। यह सुन कर संघ के तरफ से आये हुए श्रावक बहुत चिन्ता निमग्न हुए। उन पर करुणा ला. कर आखिर रत्नप्रभसूरिजीने उन श्रावकों को कहा कि-तुम जल्दी जाओ, प्रतिष्ठा के योग्य सभी सामग्री तैयार कर रखने को संघ से कह देना । मैं यहाँ की प्रतिष्ठा का कार्य सिद्ध कर के आकाशमार्ग से आ कर, इसी लग्न में कोरंटक के मन्दिर-प्रतिमा की प्रतिष्ठा कर दंगा। संघ के भेजे हुए श्रावक प्रसन्न हो और वन्दन करके शीघ्र ही कोरंटक पहुंचे । उन के कहे अनुसार प्रतिष्ठा की सब सामग्री तैयार की । इधर ऊकेशनगर में महावीर-प्रतिमा की स्थापना करके, आकाशमार्ग से शीघ्र ही कोरं १ किसी किसी जैनपट्टावली आदि में मूलरूप से ऊकेशनगर में और वैक्रियरूप से कोरंटनगर में प्रतिष्ठा की ऐसा लिखा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) टनगर में महावीर मन्दिर - प्रतिमा की प्रतिष्ठा उसी लग्न में करके, वापिस ऊकेशनगर आ कर रत्नप्रभाचार्यने प्रतिष्ठा का अवशिष्ट विधान भी पूर्ण किया । इस प्रकार महाराज श्रीरत्नप्रभः सूरिजीने ऊकेशनगर आर कोरंटकनगर में श्री महावीरनिर्वाण से ७० वर्ष बाद महावीर मन्दिर प्रतिमा की प्रतिष्ठा एक ही लग्न में की। श्रीरत्नप्रभसूरिजी महाराजने ऊकेशनगर में अपने उपदेशबल से सेठ ऊहड आदि अठारह हजार महाजन कुटुम्बों को प्रतिबोध देकर जैनी बनाया । एकदा समय आचार्यने स्वप्रतिबोधित श्रावकों को कहा कि देवी चण्डिका अनेक प्राणियों का घात करनेवाली है अतः इस पापिनी देवी का पूजन तुम न करो । श्रावकोंने कहा - स्वामिन् ! यह देवी चमत्कारिणी है, यदि इसका पूजन न किया जाय तो हमारे कुटुम्ब का नाश कर देगी । आचार्यने कहातुम लोग घबराओ मत, तुम्हारी रक्षा में करूं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२) मा, लेकिन आज से उस की पूजा करना छोड दो । श्रावकोंने गुरुमहाराज के कहने से चंडिका की पूजा करना छोड दी। इससे वह आचार्य महाराज के ऊपर अत्यन्त कुपित हुई और आचार्य पर लांग देखने लगी। एक दिन आचार्य रत्नप्रभसूरिजी संध्या के समय ध्यान रहित अवस्था में बैठे हुए थे, देवीने लाम पाकर उन के नेत्रों में पीडाशुरू की। आचार्यने अपने ज्ञानवल से दैवीमायाजान कर चण्डिका को मंत्रों से इस प्रकार खाली कि वह मारे पीडा के जोर से रोती हुई बोलने लगी किस्वामिन् ! मरती हूं, मेरी रक्षा करो, मुझे कृत अपराध की क्षमा दो, आयंदे से मैं ऐसा अ. पराध कभी नहीं करूंगी । आचार्यने कहा कि तुझे ऐसा करने का कारण क्या था ?, देवीने माफी मांगते हुए कहा-प्रभो! आपने मेरे से. वकों से मेरी पूजा बन्द कराके उनकी रक्षा की, इससे मुझे क्रोध आ गया। आचार्यने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) कहा-खैर! अब तुं क्या चाहती है ?, देवीने कहा-मेरे को कडडा मडडा ( मांस) प्रिय है अतएव वही चाहती हूं। - आचार्यने कहा-यदि हमारे कहे मुताबिक तुं करेगी तो तुझे अभीष्ट मिलेगा। देवीने कहा-यदि मेरे को अभीष्ट मिल जायगा तो हमेश मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगी, यह मैं शपथ पूर्वक कहती हूं । गुरूने कहा-देवी ! तुं अपने वचन पर स्थिर रहना, हम तेरे को कडडा मडडा का अनुकरण देंगे उसीमें तुं आनन्द मान लेना। देवी तथास्तु कह कर अन्तर्धान (अदृश्य) हो गई। एकदा सब श्रावकों को एकत्रित करके रत्नप्रभाचार्यने फरमाया कि-आप लोग चण्डिका की पूजा के लिये अपने अपने घर से सुंवाली, पूडी, आदि पकवान और कपूर, कस्तूरी, अगर, आदि सुगन्धी चीजें जातिवन्त विविध पुष्पों के साथ लेकर उपाश्रय में आओ, यहाँ से उस देवी के मन्दिरमें पूजा करने को चलेंगे।गुरु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) आज्ञा के अनुसार सभी सामग्री तैयार कर के श्रावक उपाश्रय में उपस्थित हुए। आचार्य महाराज ससामग्रीक श्रावकों के सहित चण्डिका के देवल में गये और आचार्यने पकवानों को कडड मडड (कटके) करके देवी को कहाहे देवी! तुं तेरा इच्छित बली-दान ले। देवीने प्रत्यक्ष होकर कहा कि-कडड मडड यह नहीं, दूसरी वस्तु है, वह लाओ। आचार्यने कहाभोली ! इस में तुम हम को कुछ लेना देना नहीं है, मांस भक्षक तो राक्षस ही हो सकते हैं, देव तो नित्य सुधापान करते हैं, अतएव अब तुं दयाधर्म का आश्रय ले और हिंसाजनक प्रवृत्ति का त्याग कर, यही वास्तविक और उभयलोक हितकर अभीष्ट समझना चाहिये। ... इन मधुर और पारमार्थिक वचनों से प्रतिबोध पाकर देवीने हिंसामय बलि-दान लेने का त्याग किया और आचार्य से कहा-स्वामिन् ! आज से मैं आपकी सेविका हूं, कार्य पडने पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) मुझे भी स्मरण करके धार्मिक लाभ देने की कृपा करना, और श्रावकों के द्वारा पुष्प तथा नैवेद्य से साधर्मिका तरीके मेरी पूजा कराना। आचार्य महाराजने भी भावी समय का विचार करके देवी का वचन स्वीकार किया। इस प्रकार रत्नप्रभाचार्य के टपदेश से चण्डिका देवीने पाप को छोड कर दयाधर्म अंगीकार किया, जिस से वह सर्वत्र सञ्चिका (सत्यका) के नाम से प्रसिद्ध हुई। श्रीमहावीरनिर्वाण से बावनवें वर्ष में रत्नप्रभ आचार्यपदारूढ हुए । उसके बाद १८ वें वर्ष में ऊकेश-नगर और कोरंटक नगर के महावीर मन्दिर-प्रतिमा की एकही लग्न में प्रतिष्ठा की। श्रीरत्नप्रभसूरिजी महाराजने सवालाख क्षत्रियों और अठारह हजार जैनेतर महाजन कुटुम्बों को प्रतिबोध देकर जैनी बनाया। अन्त में निर्दोष चारित्र पालन कर, और चौराशी वर्ष का आयु भोग करके वे स्वर्गवासी हुए। नाभिनन्दनोद्धारप्रवन्ध, २ प्रस्ताव, श्लोक १३६-२२।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थान्तरों में लिखा मिलता है कि श्रीमाल ( भीनमाल ) नगर में राजा भीमसेन परमार राज्य करता था, उसके उपलदेव, आसपाल और आसल ये तीन लडके थे। उपलदेव अपने दो मंत्रियों को साथ ले कर, उत्तर दीशा की तरफ चल निकला । उस समय दिल्ली ( देहली) में साधु नामक राजा राज्य करता था । उपलदेव, उस राजा को मिला और उसको एक नया नगर आबाद करने की अपनी इच्छा दर्शाई। दिल्लीपति के आदेशानुसार उस राजकुमार ( उपलदेव ) ने ओसिया नाम की नगरी बसाई। राजा की उस में सर्वप्रकार से सहायता, एवं अनुकूलता थी, इस वास्ते इधर उधर के लोग आकर वहाँ बसने लगे। थोडे ही अरसे में वहाँ चार लाख मनुप्यों की आबादी हो गई, जिसमें सवा लाख राजपूत भी थे। - इस अवसर में आबु पर्वत पर प्राचार्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) श्रीरत्नप्रभसूरिजीने ५०० शिष्यों के साथ चातुर्मास किया । यह रत्नप्रभसूरि पार्श्वनाथसन्तानीय केशीकुमार नामा गणधर के प्रशिष्य और चउदह पूर्वधर ( श्रुतकेवली ) थे, तथा निरंतर महीने महीने पारणा किया करते थे । चातुर्मास पूर्ण होने के बाद आचार्य महाराज जब गुजरात की तर्फ को विहार करने लगे, तब उनके तप संयम से प्रसन्न होकर भक्तिभाव पूर्वक अम्बिकादेवीने प्रार्थना की किप्रभो ! आप यदि मारवाड देश में विचरें, तो अनेक भव्यात्माओं को सुलभबोधिता और दयाधर्म की प्राप्ति होवेगी । इस बात को सुनकर सूरिजी महाराजने अपने ज्ञान में जब उपयोग दिया, तब उनको मारवाड की तरफ विहार करने में अधिक लाभ मालूम हुआ । इस वास्ते उन्होंने ५०० शिष्यों को तो गुजरात की तरफ रवाना किया और आपने एक ही शिप्य को साथ लेकर मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) रवाड की तरफ प्रयाण किया। ग्रामानुग्राम पादविहार से विचरते हुए आप ओसिया नगरी में आये, ग्राम के निकट किसी स्थान में रह कर आपने मासक्षमण की तपस्या शुरु की। शिष्य अपनी भिक्षा के लिये प्रतिदिन फिरता है परन्तु वहाँ के लोग प्रायः ऐसे हैं कि-जैन साधु कौन ? उनको भिक्षा देने में क्या फल ? इस बात को वह कुछ समझते ही नहीं। शिष्यने कई दिनों तक तो ज्यों त्यों चला लिया, परन्तु आखिर जब कोई भी उपाय शरीर निर्वाह का नहीं देख पडा, तब उसने गुरु-महाराज के चरणों में निवेदन किया कि-प्रभो! आप तो मेरु शैलसम गंभीर हैं परन्तु मेरे जैसे निःसत्व के निर्वाह योग्य यह क्षेत्र नहीं है। यहाँ साधु के व्यवहार को कोई नहीं जानता, शुद्ध आहार सर्वथा नहीं मिलता, और आहार विना शरीर नहीं रह सकता । अब जैसी आपश्री की आज्ञा हो वैसा किया जाय। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९ ) .. यह बात सुन कर गुरु-महाराजने सोचा कि इस संयमी साधु को अन्य क्षेत्र में लेजाने से इस का आत्मा स्थिर हो जावेगा। यह सोच कर गुरु-महाराज विहार करने को तैयार हुए । तब सच्चायमाता जो कि उन राजपूतों की कुलदेवी थी उसने मनमें विचार किया कि ऐसे तपस्वी, विशुद्ध संयमी और ज्ञान के सागर, मुनिराज मेरी वस्ती में से भूखे चले जावेंगे तो मेरे जैसा अधम आत्मा और किसका होगा ?, लोकोक्ति भी है किअपूज्या यत्र पूज्यन्ते, पूज्यानाञ्च व्यतिक्रमः । भवन्ति तत्र श्रीण्येव, दुर्भिक्षं मरणं भयम् ॥१॥ देवीने आचार्य के पास आकर, वहाँ ठहरने का आग्रह किया, और कहा-यहाँ आपको महान् लाभ होगा। सूरिजीने कहा-साधु सर्वत्र समभाव है, तथापि अन्न के विना शरीर, और शरीर के बिना धर्म नहीं रह सकता। देवीने कहा-इस प्रकार निराश होने की जरूरत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं । आप अपने लब्धिबल से इस प्रजा को धर्म की शिक्षा दें, आप चौदह पूर्वधर ज्ञान के सागर हैं । इतने दिन तक मुझको आप जैसे सुपात्र मुनियों के गुणों का परिचय नहीं था, आज आपके सद्गुणों को जान कर आप के धर्मोपदेशों को सुनना चाहती हूं । देवी की इस प्रार्थना से शासनशृङ्गार सूरिजीने देवी को दयाधर्म का महत्व समझाया। देवी को दयाधर्म की प्राप्ति हुई और अरिहन्तदेव के वचनों की उसके मनमें परिपक्क आस्था हो गई। देवी की उस भावनाने इतना प्रौढ बल पकडा किउसकी प्रार्थना आचार्य को माननी ही पड़ी। सूरिजीने गाँव में से रुई की एक पूनी मंगाई और उसका सांप बना कर उसको हुक्म दिया कि 'जैसे दयाधर्म की वृद्धि हो वैसा प्रयत्न तुम करो।' ___ अब वह सांप वहाँ से आकाश के रास्ते उड़ा और सभा में बैठे हुए राजकुमार को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१ ) काट कर आकाश में उड गया, सभा में हा हा कार मच गया । राजाने विषवैद्य, मंत्र, औषधि, जोगी, ब्राह्मण, विषापहारी - मणि, प्रमुख अनेक उपाय कराये परन्तु उनसे अंशमात्र भी फायदा नहीं हुआ । आखिर सब हताश और निराश हो गये । सब लोग शोकाकुल होते हुए राजा की आज्ञा पा कर राजकुमार के शरीर को अग्निसंस्कार के लिये प्रेत-भवन पर ले गये । इतने में गुरु- महाराज की आज्ञा से चलेने वहाँ जा कर सब को रोका, और कहा कि- ' हमारे गुरु- महाराज का फरमान है कि लडका हमको बिना दिखाये जलाया न जावे ' इस बात को सुन कर राजा उपलदेव के मन में कुछ आशा के अंकूर फिरसे प्रगट हुए । वह सब लोग वहाँ से चल कर सूरिजी के पास पहुंचे, और उनके चरणों में पडकर रोते हुए छाचारी से बोले- प्रभो ! हम निराधारों को आधार मात्र यह एक लडका है । आप दयालु, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दया सागर सभी जगजीव-वत्सल है, हम सेवकों को पुत्र की भिक्षा देकर सुखी करें, हम आप के इस उपकार को कभी न भूलेंगे, और हमारी तमाम प्रजा भी यावच्चन्द्रदिवाकर आपके उपकार को नहीं भूलेगी। आचार्य महाराजने कहा-तुम घबराओ मत, लडका जीता है। बस, कहना ही क्या था ? लडके का जीना सुनते ही राजा प्रजा सब खुश हो गये । राजाने गुरुचरणों में सीस नमा कर कहा-प्रभो ! मेरा लडका जीता रहेगा तो मैं यावजीव तक आपका ऋणी होकर आपकी आज्ञा में रहूंगा, आप मुझे जैसे फरमायेंगे वैसा ही करूंगा। आचार्य महाराजने अपने योग-बल से उस सांप को बुलाया और आदेश दिया कि-'तुम अपने विष को चूंस लो' इतना आदेश पाते ही सांपने कुमार के शरीर में से जहर चूंस लिया। कुमार निराबाध उठके बैठ गया और लाचारी से पिता को पूछने लगा कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३ ) ये सब लोग यहाँ क्यों इकटे हुए हैं ?, राजाने हर्ष के आंसु वर्षाते हुए पुत्र को सारा हाल सुनाया, और कहा-बेटा! इन महायोगीश्वर के प्रौढ प्रभाव से आज तेरा पुनर्जन्म हुआ है इसलिये सकुटुम्ब अपने सब इन महापुरुष के ऋणी हैं। गुरुमहाराज का महा अतिशय देख, उनको साक्षात् ईश्वर का अवतार मान कर उनके चरणों में पड़े और प्रार्थना करने लगे कि स्त्रामिन् ! आप हमारा राज्य भंडार सर्वस्व लेकर हमको कृतार्थ करें । आचार्य बोले-हमने तो राज्य की लालसा से यह काम नहीं किया, अगर हमे राज्य की इच्छा होती तो अपने पिता का राज्य ही क्यों छोडते ? इस वास्ते स्वर्ग मोक्ष का देनेवाला, अक्षय सुख का देनेवाला, और सर्व जीवों को आनन्द का देनेवाला, सर्वज्ञ अरिहंत परमात्मा का कहा विनयमूल धर्म ग्रहण करो। राजाने प्रार्थना की कि-प्रभो! आप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( > मेरे सर्व प्रकार से उपकारी हैं। धर्म कर्म का स्वरूप मैं कुछ नहीं जानता, आप जैसे फरमावेंगे वैसा मैं अवश्य अंगीकार करूंगा । सूरिजी जानते थे कि ' यथा राजा तथा प्रजा ' राजा धर्मी हो तो प्रजा भी धर्मी होती है । यह सोच कर आचार्य महाराजने सत्रा लाख राजपूतों के सहित राजा को जैनधर्म का उपासक बनाया और उनका ओसवाल नामका वंश स्थापन किया । राजाने चरम तीर्थंङ्कर भगवान् श्रीमहावीरस्वामी का मन्दिर बनवा कर सूरिजी महाराज के हाथ से उस मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई | प्राचीन इतिहासों से पता चलता है कि मारवाड राज्यान्तर्गत कोरटाजी गाँव के श्री संघने भी श्रीमहावीरस्वामी का मन्दिर बनवाया और रत्नप्रभसूरिजी को उस मन्दिर की प्रतिष्ठा का मुहूर्त्त पूछा तथा अति आग्रह से प्रार्थना की कि उस मौके पर आपश्री को जरूर ही पधारना चाहिये, आपश्री के हाथ से ही हम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा करवायँगे । आचार्य महाराजने उनको मुहर्च दिया, परन्तु उसी मुहूर्त पर ओसियाजी में प्रतिष्ठा कराने का वचन आप राजा को दे चुके थे । इस वास्ते आत्मलब्धि से दो रूप बना कर एक ही दिन, एक ही मुहूर्त में आपने दोनों जगह की प्रतिष्ठा करवाई। ___ प्राचु जैनमंदिरों के निर्माता पृष्ठ २-४ ऊएस या ओसवंश के मूल संस्थापक यही रत्नप्रभसूरिजी थे, इन्होंने ओसवंश की स्थापना महावीरनिर्वाण से ७० वर्ष बाद ऊकेश (वर्तमान ओशिया) नगर में की थी। आधुनिक कतिपय कुलगुरु कहा करते हैं कि रत्नप्रभाचार्यने बीये बादीसे (२२२) में ओसवाल बनाये यह कथन कपोल-कल्पित है, इसमें सत्यांश बिलकुल नहीं है । जैनपट्टावली और जैनग्रन्थों में ओसवंश स्थापना का समय महापरनिर्वाण से ७० वर्ष बाद ही लिखा मिलता है जो वास्तविक मालूम होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) विक्रम सं०१४७१ के हस्तलिखित एक प्राचीन -पत्र में लिखा है कि_ 'विक्रम से ४०० वर्ष पूर्व श्रीरत्नप्रभसूरिजीने श्रीमाल के राजा श्रीपुंज के मंत्री ऊहड और ऊधर को सकुटुम्ब प्रतिबोध देकर उनका ओशवंश और १८ गोत्र स्थापन किये, तथा आओशया और कोरंटक नगर में महावीरप्रभु के मन्दिर-प्रतिमा की प्रतिष्ठा दो रूप करके एक ही लग्न में की।' ___यही आशय नाभिनन्दनोद्धारप्रबन्ध कारने भी दर्शाया है, अतएव निःसंदेह सिद्ध है कि ओशवंश के मूल संस्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी ही थे जिन्होंका इतिहास ऊपर दर्ज है। रविप्रभसूरि, वर्द्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, पप्रसूरि और जयशेखरसूरि आदि समर्थाचायोने भी जुदे जुदे गाँव और नगरों में अनेक राजा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) और क्षत्रियसरदारों को प्रतिबोध देकर, उन्हें ओशवाल बनाये हैं । परन्तु वे ओशवंश के स्थापक नहीं कहे जा सकते, किन्तु उन्हें ओशवंश के नवपल्लवित करनेवाले समझने चाहिये। संस्थापक का सौभाग्य तो पार्श्वनाथसन्तानीय विद्याधरकुलोत्पन्न महाराज श्रीरत्नप्रभसूरी. श्वरजी को ही मिला है। -मुनियतीन्द्रविजय । श्री आदिनाथ स्तुतिःअहं श्री आदिनाथो जगतजनपतिःज्ञानमूर्तिः चिदात्मा, देवेन्द्रादिप्रपूज्यो विविधसुखकरो लोककर्ता च हर्ता । कर्माणां धर्मराजो मुनिगणमनसि स्थैर्यता प्राप्तमानः, सो मे स्वामी शमीशो हरतु कलिमलं कोरटस्थो जिनेशः १ -श्रीभूपेन्द्रसूरि। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट नंबर २ श्रीकोरटामंडन-महावीरजी के मन्दिर का प्रशस्ति-लेख वीरनिर्वाणसप्ततिवर्षा पार्श्वनाथसन्तानीयः । विद्याधरकुलजातो विद्यया रत्नप्रभाचार्यः ॥१॥ द्विधा कृतात्मा लग्ने चैकस्मिन् कोरण्ट प्रोसियायाम । वीरस्वामिप्रतिमामतिष्ठिपदिति पप्रथेति प्राचीनम् ॥२॥ देवडाठक्कुरविजयसिंहे कोरंटस्थवीरजीर्णबिम्बम् । उत्थाप्य राघशुक्ने निधिशरशशिवर्षे पूर्णिमा गुरौ ॥ ३॥ सुस्थिरवृषभे लग्ने तस्य सौधर्मबृहत्तपोगच्छीयः । श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिः प्रतिष्ठाजनशलाका चक्रे ॥४॥ कोरंटकवामि-मृता-मोखासुतकस्तूरचन्दयशराजी । दत्वोदधिशतमेकं, श्रीमहावीरप्रतिमामातष्ठिपताम् ॥५॥ हरनाथसुतष्टेकचन्द्रस्तचैत्यकोपरि।। कलशारोपणं चक्रे, भूबाणगुणदायका पोमावापुरवासी, हरनाथात्मजः खुमाजी श्रेष्ठी। पृथ्वीशररसमुद्रां, प्रदाय ध्वजारोपयामास ॥७॥ प्रोसवालरतनसुता हीरचेननवलकस्तूरचन्द्राः। शशिवमुकरदा दंडमतिष्ठिपन् कलापुराऽऽवासाः ॥८॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजेन्द्रसरिशिष्यवाचकमोहनविजयाभिधो धीरः । लिलेख प्रशस्तिमेनां, गुरुपदकमलध्यानशुभंयुः ॥६॥ श्रीकोरटामंडन-ऋषभदेवजी के मन्दिर का प्रशस्ति-लेखमरुधरेशराष्ट्रकूटवंशीयश्रीसिरदारसिंहराज्ये । एरनपुरारोडतः, क्रोशष विलसति कोरंटपुरी ॥१॥ अवति पुरमेतद्देवडावंशीयठकुरो विजयसिंहः । कणयापुर कोलापुर कोरंटक नामभिः ख्यातम् ॥ २ ॥ उपदेशतरङ्गिणीग्रन्थादेरवलोकनात् । वत्सरे द्विषु युग्मेन्दौ, श्रीवृद्धदेवमरिराट् ॥३॥ स्थित्तात्र चतुर्मासी, नाहडमन्त्रिसालिगावुपदिश्य । साकं कुटुम्बवगैस्तावेताववीभवजैनौ ॥४॥ अथ नाहडमन्त्री कोरंटकादिषु द्विसप्तति चैत्यानि । निर्माप्य तत्प्रतिष्ठामचीकरच्छीवृद्धदेवसरिया ॥५॥ कोरण्टकातिसमीपस्थे, शालते ब्रह्मपुरी नगरी । तत्समया गिरिनिचैरस्ति महावीरप्राचीनचैत्यम् ॥६॥ एतत्प्राकारवामभागे पृथ्वीखननसमये । विधुशशिनववर्षे, ज्येष्ठ शुक्रऽष्टमी तिथ्याम् ॥७॥ श्रीऋषभदेवस्वामिदीव्यन्मतिः प्रादुरासीत् । कायोत्सर्गध्यानस्थितशान्तिसुसम्भवाम्यां साकम् ॥ ८ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) . एतत्तिष्ठापयिषुः सहर्ष कोरटानिवासी सङ्घः । सौधशिखरमतिरम्यमचीकरन्मन्दिरं तत्र ॥६॥ श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयविजयराजेन्द्रमूरिणा। नवशरनिधिशशिवर्षे. वैशाखशुक्लपूर्णिमा गुरुवारे ॥१०॥ प्रतिष्ठामचीकरत, लग्ने महामहेन वृषभे स्थिरे ।। इतर कियजिनविम्बाञ्जनशलाका कारिता तेन ॥११॥ भूरसवसुमितदायी, जोगापुरावासिदलासुरतिंगः । तस्मिन्नवजिनबिम्बे, नामजाटेतमकारयत्स्वीयम् ॥१२॥ पोमावावासिहट्टादीपामोटासुताऽऽइदानाख्यौ । षट्शतमेकोत्तरपञ्चाशद्दत्वा मूर्तिमतिष्ठिपताम् ॥१३॥ हरजीनिवासिपूनमचन्ददानापन्नाः स्वर्णकलशम् । द्वादशशतकपश्चाशद्दत्वा समारोपयामासुः ॥१४॥ दत्वा षट्शतकं पञ्चविंशत्युत्तरमप्यथ । स्थापयाश्चक्रिरे दंडमेत एव मुदां तदा ॥१५॥ पोमावापुरवासी, नवलडूंगा सैकत्रयोदशशतम् । दत्त्वा रम्यपताकाऽऽरोपणं कृतवानतिभक्त्या ॥१६॥ वनाराजानवावरदाभूताभगाधूडापीथाणी । हकमासूरजमल्लावैशाखपूर्णिमायां स्वामिवात्सल्यम्।।१७।। वैशाखसितकामतिथ्योगासूरसिंग ओसवालः । चक्रिवानवकारसीमकरोदापातिकमहं श्रीसङ्घः ॥१८॥ कृतिरियं मोहनविजयोपाध्यायस्यति । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट नंबर ३ श्रीकोरटामंडनजिन-स्तवनानि । जलानी राह प्रादिजिणन्द अरजी सुणोजी काई, मुज मननी महामुज मननी महाराज ॥ प्रा० । टेर ॥ निज गुण आतम माहराजी काई, हुं भून्यो विषयने, हुं भून्यो विषयने संगहिवे तुम चरणे प्रात्रियोजी । हिवे तुम चरणे आवियोजी कांई, निजगुण दाखो, निज गुण दाखो रंग।। श्रा० ॥१॥ निरगुण जाणी नवि छोडियेजी कांई, तुम को दीन. तुम छो दीनदयाल-सांचो विरुद संभालीयेजी। सांचो विरुद संमालीयेजी कांई, मुज पीडा दो, मुज पीडा दो टाल ॥ प्रा० ॥ २ ॥ तुहिज शत्रुजय अधिपति जी कांई, तुहिज धुलेवे, तुहिज धुलेवे स्वाम-तुहिज आबू गढ धणी जी । तुहिज आबुगढ धणीजी काई, तुहिज कोरटे, तुहिज कोरटे धाम !! भा० ॥३॥ दरिसण दुरलभ ताहरोजी काई, ते तो मुज पर, ते तो मुज परतीत-पिण चारित्रनी संपदाजी। पिण चारित्रनी संपदाजी कांह, दीजिये सुविहित, दीजिये सुविहित नीत ॥ मा० ॥ ४ ॥ संवत रस पण नव शशिजी काइ, मृगसिरवदिनी, मृगसिरवदिनी बीज-सूरिराजेन्द्रे वंदियाजी। मूरिराजेन्द्रे वंदियाजी काइ, पामी अनुभव, पामी अनुभव बीज ॥ प्रा० ॥ ५ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) हीडानी राहमादिजिनन्द प्रभु अरजी लीजे, शिवरमणी सुख दीजे रे। शुभ नजर करी साहिब मुजने, दरिसण वेगा दीजे रे १ साहिब प्यारो रे, साहिब प्यारो मुजने तारो, भवजल पार उतारो रे साहिब० ॥ टेर ।। पांचे आठे मुजने पीड्यो, नरक निगोद नचायो रे। काल अनंता कुमति संगे, जनम मरण दुख पायो रे सा० २ मोहरायनो मंत्री मलियो, चोर संघाते भलियो रे। तृष्णा तरुणी आणी मेली, कामकीचड माहे रलियोरे सा०३ तेर वावीस तेंतीसे टाली, सत्तावन छटकाया रे । दस चोरासी दूर करीने, नाभीनंदन ध्याया रे ॥ सा०॥॥ कोरटा नगर में ऋषभजिनेश्वर, भेट्या मन शुध भावे रे । सूरिविजयराजेन्द्र कृपाथी, प्रमोदरुचि दिल ध्यावे रे ॥सा०५ मादीश्वर अवतारी जिनवर, कोरटाधिप जयकारी रे । सातिशय जिन मुद्रा दरसित, भावरोग अपहारी रे ॥१॥ भवदुखहारी रे, भवदुखहारी शिवसुखकारी, जीवजीवन आधारी रे. भवदुखहा०॥ टेर ॥ सिद्धाचल आबू के मंडन, अद्भुत महिमा धारी रे । सुर नर किन्नर वासुदेवा, करते सेवा तुम्हारी रे ॥ भ०॥२॥ करुणावत्सल ! करुणा कीजे, दीजे पद अणहारी रे । नाथ निरंजन शरणे राखो, सेवक भजे गुजारी रे ॥भ०॥३॥ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३) वेद वसु निधि भूमि वर्षे, मगसिर तीज उजारी रे। सेदरिया से संघ समाजे, भावी देव जुहारी रे ॥ भ०॥४॥ विद्या सागर विश्व दिवाकर, विवेकाकर निस्तारी रे । सूरीश्वरराजेन्द्र तुं साचो,मुनियतीन्द्र हितकारी रे ॥भ०॥५ महेतानीरे शुं मही मोल. ए राह--- जिनवरजीरे आदिनाथ जयकारी, सकल संघने हितकारी, आदिनाथ जयकारी ।। टेर । मुन्क मुन्क में नामना भारी रे, __सौ यात्री आवे दिल धारी रे । निशदिन गुण गावे नर नारी रे, नर नारी रे मावना भावे सारी. प्रा. १ राज राजेश्वर पय वंदे रे, वासव पण सुर वंदे रे । जय जय बोलत आनंदे रे, __ आनंदे रे भावस्तवन विस्तारी. श्रा० २ श्रीनाभिराय कुल चंदा रे, माता मोरादेवीना नंदा रे । यशधारी तेज आनंदा रे, मानंदा रे शिवरमणी भरतारी. मा० ३ ती तालथी वघावो जिवंदा रे, कापे हृदयमंल दुख फंदा रे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा० ४ प्रा०५ ( १०४) द्रगन मानो के अरविंदा रे, __ अरविंदा रे सुंदर छवि प्यारी. विशद पुष्प लईने आवो रे, जइने प्रभुजीपे रचावो रे । जय जयारवथी वधावो रे, वधायो रे सुंदर भाव जगारी. यश सुख तेहथी मलशे रे, __ कर्मकलंक नहीं फरसे रे । जीत नगरा नित घुरसे रे, घुरशे रे मननी मोजां सारी. विश्वपति तुम चरणे रे, आव्यो छु सेवा नित करणे रे । ध्यानमां लइ लीजो शरणे रे, शरणे रे विद्याविजय सुखकारी प्रा०६ प्रा० ७ राह कबालीप्रभु श्रीनाभि के नंदन, करो मुज कर्म निकंदन । सदा शिवसाय के मंडन. करो मुज कर्म निकंदन ॥१॥ घणो क्रोधी घणो लोभी, घणो मानी थयो हुँ तो। विषयी ने लालची पूरो, करो मुज कर्म निकंदन ॥२॥ मति थई भ्रष्ट जो मारी, धरी ना सेवना तारी। भम्यो कुदेवने धारी, करो मुज कर्म निकंदन ॥३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.५) जया न आपने कदीये, ग्रही ना आपनी माणा । स्मर्ण प्रभु लेश ना कीg, करो मुज कर्म निकंदन ॥४॥ हवे प्रभु पासरो तारो, नहीं कोई साह्य करनारो। तुंही मम प्राण प्राधारो, करो मुज कर्म निकंदन ॥ ५ ॥ सदा हुं ध्यान तव धरतो, तमोने लेश ना परवा । दया प्रभु दिलमें लाकर, करा मुज कर्म निकंदन ॥६॥ तपोबल तेज गुण धारी, मुनियतीन्द्र मनोहारी । विवेक गुण प्रापवा भारी, करो मुज कर्म निकंदन ॥ ७ ॥ भेखरे उतारो राजा भरतरी ए राहतार प्रभु ा तुज बालने, तारो कृपा निधान जी । उमेद धरी हुं आवियो, करवा दर्श सुजान जी ।। ता० १॥ संसार अटवी ममता थकां, देख्या दुःख अनंत जी । कूड कपट अति प्रादर्या, न कीधो संग भवंत जी॥ता० २।। पूर्व पुन्यना जोगथी, पाम्यो मनुष्य अवतार जी। शरण ग्रहो हवे आपनो, करशो भव निस्तार जी॥ता०३॥ मोरादेवी सुत नंदलो, नाभीके कुल भाण जी। युनना धर्म निवारने, पाम्या पद निरवाण जी ॥ ता० ४ ॥ ऋषभ ऋषम रटतो थको, आयो तुज दरवार जी। महेर करी प्रभु बालने, कीजो भवजल पार जी ॥ ता०५॥ सरिराजेन्द्र पय वंदतां, पावे अविचल धाम जी । यतीन्द्रगुरु सुपसायथी, विवेकविजय गुण ग्रामजी ।। ता०६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६ ) साल छीयासी अतिमलो, कृष्णपक्ष रवीवार जी । तिथी एकादशी सोहती, भेट्या कोरंटे सुसार जी ।। ता०७॥ __ माता मोरादेवीना नंद० ए राहमैं तोरे दरपे आयोजी, शिवपुरवासी स्वामी तेरो दर्शन पायो जी । मैं तोरे० ॥ टेर ॥ कोरटामंडन छो दुखकंदन, भयभंजन भगवान । शांत मूर्ति प्रभु तारी निरखी, हुओ मन गुलतान ॥ मैं०१॥ धनुष पांचसौ सोवनकाया; उज्ज्वल तेज अपार । विनीतानगरीनो तुं राजा, नाभीनन्द कुमार ॥ मैं ॥२॥ मारुदेवी कुंखे हो जाया, नाभीराय कुलचंद । दर्शन तेरा पुन्ये पायो, काटो भवना फंद . ॥ मैं० ॥३॥ माथे मुकुट काने कुंडल, झलहल शोभा सार । बाहे बाजुबंद रत्नजडित छे, अंगी अजब अपार ॥ मैं॥४॥ सर्वदेवमा देव तुं सांचो, पडचा पूरण हार । और देवने नवि हुं जाचुं, आयो तुम दरबार ॥ मैं ॥५॥ विभु वरदाता जुग विख्याता, सांचो सिद्ध स्वरूप । शीतल शशिसम मुखनी कांति, चिदानंद अनूप ॥मैं ॥६॥ सूरिविजयराजेन्द्र पसाये, जय जयकार वरताय । यतीन्द्रमुनिनो चरणोपासक, नेमचंद गुण गाय ॥ मैं०॥७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) भेखरे उतारो राजा भरतरी० ए राहमरोसो वीर ! इक ताहरो, जगदीश जगभान जी । कृपा करी प्रभु दासपे, लीजो अर्ज दिल मान जी । भ. १ त्रिशलादेवी अतिलाडलो, सिद्धारथ तुज तात जी। जय हो सदा वीर प्रापनी, जय जय त्रिलोकी नाथ जी ।। म० २ अभिग्रह करी अति आकरो, तारी चंदनवाल जी । धन्य वीर विभु आपने, धन्य धन्य मुनिपाल जी || भ० ३ स्थापना करी चतुर्विध संघनी, तार्या कई नरनार जी । उपसर्गों दुष्कर वेठीने, पाम्या पद श्रीकार जी ॥ भ० ४ रस वसु निधि चन्द्र में, भेट्या तुज चरणसरोज जी । यतीन्द्र मुनि पय वंदिने, विवेकविजय गुण मोज जी।भ०५ चालो सकल मिल सिद्धगिरि जाना, ए राहकोरटा तीरथ का ध्यान लगाना; पूर्व उपार्जित पाप भगाना । मूर्ति मनोहर महावीर मंदिर, मन वच काय से प्रभु गुण गाना को० १ अतिप्राचीन जैनमत मंडन, खंडन नुम्पक नजीर दिखाना । मूर्तिपूजा यह शास्त्र सिद्ध है, सबूत अद्भुत यह सबको सिखाना को० २ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को ३ को० ४ (१०८) वीरनिर्वाण से सित्तर वर्षे, रत्नप्रभसूरि थे जग भाना । वैक्रियलब्धे किये प्रतिष्ठित, __ तीरथ दोनों प्रसिद्ध कहाना प्रोशिया नगरी कोरंट पुर वर, दोनों नगर भुवि प्रगट पहचाना । चारों मंदिर सुंदर शोभित, अनुभव यश नित जिनमत जाना ऋषभ ऋषभ प्रभु पार्श्व जिणिन्दा, जगदानन्दा सुख विलसाना । वृद्धदेवसूरि स्थापन कर्ता, भवियण भाव से भक्ति बजाना सौधर्मतपगच्छ गगन दिवाकर, विजयराजेन्द्रसूरि अति बलवाना । इसी नगर में किये प्रतिष्ठा, पुनरुद्धार ये दिल में लाना प्रायः सर्व से अधिक प्राचीना, दर्शन करने को नित नित जाना । सर्व कुशल कल्याण के दाता, पूजन करके पाप पुलाना संक्त रस सिद्धि निधि इन्दु वर्षे, शुक्ल पोष की नवमी भाना । को ५ को० ६ को. ७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .(१०९) यतीन्द्र रचित तीर्थ इतिहास में, नेमि गायनपद प्रगट छपाना को० ८ ख्याल की राह मेंकोरटे दरसन करवाने, मनमें लाग्यो अधिक उमाहो भवजल तरवाने को० ।। टेर ।। भंजनशलाका ओच्छत्र सुणियो, मुक्ति वरवाने, सुर नर सारा आवे देखवा, सब दुःख हरवाने. को १ दिन एकादशी दर्शन कीना, सफल जन्म सारो। आदीश्वर अद्भुत देखता, मन मोह्यो मारो. को० २ त्रिभुवन नायक केई तरिया, अठे विराजो आप । मांग्याने मनवंछित देवे, गुनो करो सब माफ. को. ३ धन्य घडी धन भाग्य हमारा, प्रभुदर्शन पाया। केई कालरा पुन्य पुरवला, आज उदय प्राया. को० ४ चित घान्यो राजेन्द्रसरि, गुणी गीतारथ मोटा। विविध प्रकारे विधि करावे, भांगे सचि तोटा. को० ५ इण वेला में श्रोच्छव कीना, श्रीसंघने शाबास। लाख लाखने ल्हेरांवरते, वसवा शिवपुर वास. को० ६ माहोरथी तेडावी टोली, तेड्या त्रिभुवनदास । बहुविध वालको गुरु गुण गावे, रमणिक गूंथे रास. को०७ 'संवत अट्ठावनरी साले, वरत्या मंगल चार। . उमेद करी मादीश्वर ध्याने, जिणघर जय जयकार.को०८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०) वसंत चाल, चंदा प्रभुजी से० ए राहआज आनंद अपार रे, प्रभु भेटे मगन में । भेटे मगन में देखे मगन में, आज टेर. अतिप्राचीन जिन तीर्थ कहावे, नाम कोरंट उदार रे प्रभु प्रथम मंदिर श्रीवीर विराजे, त्रिशलानन्दन जयकार रे प्रभु० ऋषभजिनेश्वर मंदिर वीजे, त्रीजे पार्श्व सुखकार रे प्रभु० नूतन मंदिर चोथे मांहे, वंदो नाभि-कुमार रे प्रभु. यतीन्द्र मुनि पय--सेवक विद्या, यात्रा करी जग सार रे प्रभु धन्य दिवस घडी वार रे, प्रभु देखे मगने में । देखे मगन में पेखे चिमन में ॥ ध०॥ टेर ॥ प्रयम योगी जिन धर्मघराघव, ऋषभ ऋषभ जयकार रे.प्र.१ समणे भगवं महावीर कहावे, शासनपति सिणगार रे प्र०२ वामानंदन जग जयकारी, पारस पारस धार रे प्र०३ चैत्य मनोहर कोरंट मांही, शोभे जिन जग सार रे प्र. ४ वाचक यतीन्द्रपय सेवाकारी, विद्याविजय शुभकार रेप्र.५ माता मोरादेवी० ए राहजय जय नाभीजी के नंद, कोरटा नगर में आप विराजो, दर्शन के सुखकंद ॥ टेर ॥ मरति मनोहर तारी स्वामी, देखत मन हरसाय । दर्शनसे मानद हुमा जैसे, भेट्या सिद्धांगरि राय ज०१॥ पूरणशशि सम मुखडो सोहे, अर्धचन्द सम भाल । दर्शन कर मनडो लोभायो, कापो भव जंजाल ॥ ज०२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१ ) सुंदर प्रतिमा श्वेतवर्ष की, ऊंची के फुट पांच । खडी मूरति शांति संभव, फुट छ सादा पांच ॥ज.३॥ कषाय मंगल निधि शशि वर्षे, भेट्या दीनदयाल । मगसिरवद तृतीया की यात्रा, कीनी थई उजमाल ॥ ज०४॥ सेदरिया संघ हुआ रवाना, साथ गुडा समुदाय । कुंदनमल को दर्शन मिलिया, गुरुयतीन्द्र पसाय ॥ ज०॥ नदी नमुना के तीर० ए राहजगतारक जिनराज अछो तुमे जगपती, मुज हिवडानो हार तुंही त्रिभुवनपती । भाषक भासनरूप तिणे जाणो छती, तो पण बालक वोल वीनवू तुज प्रती ॥१॥ वर महिला धन माल छाय रह्यो मोहनी, लागी तृष्णा लार अशुभ शुभ लोहनी । जो निर्यामक श्रेष्ठ इष्ट के तो भणी, तारो दीन-दयाल ! दया करी मो भणी ॥ २॥ बृठो अम घर भाज, अमीरस मेहलो, नयणे निरख्यो नाह, संभारी नेहलो । अनुभव रूप स्वरूप प्रभुने अटकन्यां, ते मुह माग्यो आज सखी पाशा ढन्यां ॥३॥ सावराज महाराज मलग जइने वस्या, मुज मन पंकज महल छदज्ञ थइने धस्या । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२) जो हुवे सजन विदूर तोही पासे बसे, किहां सायर किहां चन्द देखी मन उल्लसे ॥ ४ ॥ पिण निरागीसुं राग करी श्युं कीजिये । जल जल मरे रे पतंग दीपक न पतीजिये। तिण मरागीसुं राग करता सोहीलो, पिण वीतरागी राग निवाहण दोहीलो ।। ५ ।। पेख्यो प्रतिरूप के परतिख तुज भणी, मोहनी पुत्रनो नेह ते जाणो जगधणी। सकलकला घट माही के प्रगटी तुज अछे, नेह कला निरवाह के परगट नाथ छे॥६॥ जेहने जेहसुं राग ते पिण तेहसु मिले, आंबाकेरो स्वाद निंबोलिये किम टले । जे रम्या जायने फूल से बाउल किम गमे, जे झील्या गंगानीर छिल्लर कहो किम गमे १ ॥७॥ चरण कमल जिनराजसुं लागी प्रीतडी, अवर संसारी देव न ध्यावं एक घडी । कोरटे वीरजिणंद दिगिद सम पेखियो, तिमिर अनादि मिथ्यात्व सहजथी मेटीयो ॥८॥ उगणीसो इगतीस वरस शुभ मास में, चैत्र अमावस दिवस भेट्यो हुल्लास में । मूरिराजेन्द्र महाराज हृदयथी थापज्यो, धनमुनि चरणसरोज सदा मोय राखज्यो ॥९॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચશોહિ. alcohle llegro Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com