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प्रा० ४
प्रा०५
( १०४) द्रगन मानो के अरविंदा रे, __ अरविंदा रे सुंदर छवि प्यारी. विशद पुष्प लईने आवो रे,
जइने प्रभुजीपे रचावो रे । जय जयारवथी वधावो रे,
वधायो रे सुंदर भाव जगारी. यश सुख तेहथी मलशे रे, __ कर्मकलंक नहीं फरसे रे । जीत नगरा नित घुरसे रे,
घुरशे रे मननी मोजां सारी. विश्वपति तुम चरणे रे,
आव्यो छु सेवा नित करणे रे । ध्यानमां लइ लीजो शरणे रे,
शरणे रे विद्याविजय सुखकारी
प्रा०६
प्रा० ७
राह कबालीप्रभु श्रीनाभि के नंदन, करो मुज कर्म निकंदन । सदा शिवसाय के मंडन. करो मुज कर्म निकंदन ॥१॥ घणो क्रोधी घणो लोभी, घणो मानी थयो हुँ तो। विषयी ने लालची पूरो, करो मुज कर्म निकंदन ॥२॥ मति थई भ्रष्ट जो मारी, धरी ना सेवना तारी। भम्यो कुदेवने धारी, करो मुज कर्म निकंदन ॥३॥
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