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(८) मुझे भी स्मरण करके धार्मिक लाभ देने की कृपा करना, और श्रावकों के द्वारा पुष्प तथा नैवेद्य से साधर्मिका तरीके मेरी पूजा कराना। आचार्य महाराजने भी भावी समय का विचार करके देवी का वचन स्वीकार किया। इस प्रकार रत्नप्रभाचार्य के टपदेश से चण्डिका देवीने पाप को छोड कर दयाधर्म अंगीकार किया, जिस से वह सर्वत्र सञ्चिका (सत्यका) के नाम से प्रसिद्ध हुई।
श्रीमहावीरनिर्वाण से बावनवें वर्ष में रत्नप्रभ आचार्यपदारूढ हुए । उसके बाद १८ वें वर्ष में ऊकेश-नगर और कोरंटक नगर के महावीर मन्दिर-प्रतिमा की एकही लग्न में प्रतिष्ठा की।
श्रीरत्नप्रभसूरिजी महाराजने सवालाख क्षत्रियों और अठारह हजार जैनेतर महाजन कुटुम्बों को प्रतिबोध देकर जैनी बनाया। अन्त में निर्दोष चारित्र पालन कर, और चौराशी वर्ष का आयु भोग करके वे स्वर्गवासी हुए। नाभिनन्दनोद्धारप्रवन्ध, २ प्रस्ताव, श्लोक १३६-२२।।
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