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११ को वे ६५ प्रतिमाएं प्रगट हुई जिनका विविरण महोपाध्याय समयसुदर ने अपने घंधोरणी तीथ स्तवन मे दिया है जो कि हमारे समय सुंदर कृति-कुसुमांजलि में प्रकाशित हो चुका है। वे प्रतिमाएं मौर्य काल तक की पुरानी थी इसलिए उनकी लिपि उस समय पढी जाना बहुत ही कठिन था। पट्टावलियों एवं शिलालेखो में लिखा है कि धरणेन्द्र या अम्बिकादेवी के प्रसाद से पाप उस प्राचीन लिपि को पढने में समर्थ हुऐ। ___ 'वरणारस ( वाचक) पद थका घरणेन्द्र प्रभावइ श्री घंधारणी नी लिपि वांची अनइ वर दीघउ जेहनइ माथइ हाथि घाइते पिण चाचइ । वलि लघुवइ थकां तपारउ उपाध्याय सोमविजय नई हराज्यउ ।'
'अम्बिका प्रदत्त वरधारका स्तबल प्रगटित घ घाणीपुरस्थित चिरंतन-प्रतिमा प्रशस्ति वर्णान्तरा।
आपके शासन मे ६ उपाध्याय और ४१ वाचक पदधारी विद्वान हुए। एक साध्वी को प्रवर्तनी का पद दिया गया। आपके शिष्य और प्रेशिष्यो की संख्या भाषा पट्टावलीमे ४१ वतलाई गई है। आपने अनेक शिष्यो को आगमादि ग्रथ सिखाए थे। इस तरह धम सेवा और साहित्य सेवा करते हुए पाटण मे सं० १७०० असाढ सुदि ६ गुजराती संवत् के अनुसार सं० १९६६ में आप स्वर्गवासी हुए।
आपके साथ ही जिनसागरसूरिजी को आचार्य पद दिया गया। वे १२ वर्ष तक तो आपके साथ रहे, फिर अलग हो गए। उनसे प्राचार्य शाखा प्रकटित हुई। जिनराजसूरिजी के समय राजस्थान और गुजरातमे खरतर गच्छ का बहत प्रभाव था और अनेक विद्वान् इनकी आज्ञा मे गांवो और नगरो मे विचरते हुए धमप्रचार और साहित्य-सृजन कर रहे थे। मापके प्राज्ञानुवर्ती श्रावको मे भी कई बहुत प्रभावशाली और समृद्ध थे, जिन्होने
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