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पंचेन्द्रिय गीत
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चउरासी लख भेष बणाए, जीव अणंती वार । करम वसइ भव माहे भमता, लाजत नही गुमार ॥३॥सु०॥ तन धन योवन हइ सब चंचल, जइसइ पीपल पान । विरणसत वार न लागत इण कु,ज्यु सध्या कउ वान ॥४ासु० जे सिर ऊपरि छत्र धराते, त्रिभुवन माहि प्रधान । ते भी काल कवल से कीने, तु क्या करइ गमान ॥५॥सु०॥ अवरहि द्यइ उपदेश विविध पर, आप न तजत लिगार। मासाहस पंखी परि करतउ, किम पामिस भव पार ।।७।।सु०।। ग्यान समुद्र मई मगन होइ करि, लेजे अरथ विचार । 'जिनसिंहसूरि' सीस इम बोलइ, 'राजसमुद्र' सुखकार ॥७०
पंचेन्द्रिय गीत सुर नर किन्नर राय आज्ञा हो,
आज्ञा हो जैहनी मन रगइ वहइ हो । बारह परषद माहि सामी हो,
सामी हो वीर जिणेसर इम कहइ हो ॥१॥ फरस तणइ विकार रावण हो,
रावण हो राजा दुखियउ रड़वडइ हो । रसनायइ कंडरीक सातमी हो,
सामी नरकइ ततखिरण जे पडइ हो ।।२।। मंत्री जेम सुबंधत घ्राणई हो,
• घ्राणइ इण भव ना सुख सउ गमइ हो । दृष्टि तणइ विकार रूपी हो,
रूपि तिम वली लखमण भव भमइ हो ॥३॥