Book Title: Jinrajsuri Krut Kusumanjali
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 298
________________ श्री जिनराज सूरिरास शनिवार ॥ वत सोल चित्तर, फागुरण सुदि शुभ वेला शुभ लगन मइ, सातमि दिवस अपार ||२|| आसक सघवी करइ, उच्छव प्रति विस्तार | पद ठवरणइ रउ भाव सु, द्रव्य तराइ अणुसार ॥ ३ ॥ [ सर्व गाथा १५४ ] ढाल - सातमी, जत्तिरी राग - सोरठि पद ठवरणइ उच्छव कीजइ, स धवीयइ सोभाग लीजइ । जस श्रवरण अंजलि भरि पीजइ, २३५ सहून दान तिहां करिण दीजइ ॥ १ ॥ सखरी धरती समरावइ, तिहां चउकी सखर वरणावइ । ति सबली नांदि मडावइ, सहु संघ भरणी ते डावइ ॥२॥ दल वादल सरिखा देरा, मुखमल दरियाइ केरा । नीलक प च वरण नवेरा, ऊ चा ताण्या वहुतेरा ॥३॥ चद्रोदय माँहि विराज, जरबाफ मसजर साजइ । विधि विधिना वाजा वाजइ, नादइ करि अ बर गाजइ ॥४॥ मिलिया मारणस ना थट्ट, करइ गीत गान गहगट्ट | जय जय भरणइ चारण भट्ट, संघवी राखइ कुलवट्ट ||५|| पाटोवर तेथि पधारइ, लोकां माँहि माम बचारइ । तिहाँ हेमसूरि गणधारइ दियउ सूरिमत्र अधवारइ ||६|| भट्टारक पाद पयउ, मिलि सुहव नारि बघायउ । श्री श्रीजिनराज सबायउ, खरतर गच्छ अधिक दीपाय ||७|| सोल कला मुखि सोहइ, नर नारी ना मन मोहइ । जिनराजसूरि सम को हइ, जगि भबिक लोक पड़िबोहइ ॥८॥ जिनसागरसूरि सबाई, प्राचारिज पदवी पाई । तेहिज नादइ श्रधिकाई, सयौं हथि थाप्या सुखदाई ॥६॥ L

Loading...

Page Navigation
1 ... 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335