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जिनराज सूरि- कृति कुसुमांजलि
सज्यापालक जेम तरुयउ हो,
तरुयउ अति तातउ श्रवणे सहइ हो
इरि परि इण जगि मांहि प्राणी हो,
प्रारणी बहुला इशा बसि दुख लहइ हो || ४ || रमणी रग पतग तिण सु, हो तिणसुं राग रिती कवइ मत धरइ हो । इरिग रग राता जेह मुगधा हो,
मुगधा पाप तणउ अपणउ भरइ हो ||५||
फल किपाक समान देखतां हो,
देखता सहु जन नइ सुख संपजइ हो ।
कडूआ एह विपाक जाणइ हो,
जाणइ जव नाना विघ दुख भजइ हो ||६|| ताथइ विषय विकार मूकउ हो,
मूकउ जेम मुगति रमणी वरइ हो ।
इम मुनि 'राजसमुद्र' मन मइ हो,
मन मइ एह भाव नित नित करइ हो ॥ ७ ॥ निन्दा वारक गीत राग - धन्यासी
सुणहु हमारी सीख सयारणे, जणि कहु दोष विराणे रे । निंदक नर चण्डाल समाणे,
आगम माझि कहाणे रे ॥ सु०॥ १ ॥ निंदक सोह न पावइ जगमे, काच सकल ज्यु नगमई रे । निदक ठावउ गिणीयइ ठगमइ,
जइसइ काग विहग मई रे ॥ मु० || २ ||