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________________ ६२ जिनराज सूरि- कृति कुसुमांजलि सज्यापालक जेम तरुयउ हो, तरुयउ अति तातउ श्रवणे सहइ हो इरि परि इण जगि मांहि प्राणी हो, प्रारणी बहुला इशा बसि दुख लहइ हो || ४ || रमणी रग पतग तिण सु, हो तिणसुं राग रिती कवइ मत धरइ हो । इरिग रग राता जेह मुगधा हो, मुगधा पाप तणउ अपणउ भरइ हो ||५|| फल किपाक समान देखतां हो, देखता सहु जन नइ सुख संपजइ हो । कडूआ एह विपाक जाणइ हो, जाणइ जव नाना विघ दुख भजइ हो ||६|| ताथइ विषय विकार मूकउ हो, मूकउ जेम मुगति रमणी वरइ हो । इम मुनि 'राजसमुद्र' मन मइ हो, मन मइ एह भाव नित नित करइ हो ॥ ७ ॥ निन्दा वारक गीत राग - धन्यासी सुणहु हमारी सीख सयारणे, जणि कहु दोष विराणे रे । निंदक नर चण्डाल समाणे, आगम माझि कहाणे रे ॥ सु०॥ १ ॥ निंदक सोह न पावइ जगमे, काच सकल ज्यु नगमई रे । निदक ठावउ गिणीयइ ठगमइ, जइसइ काग विहग मई रे ॥ मु० || २ ||
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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