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यात्म शिक्षा (विणजारा) गीत
तात विराणी करइ गहेलउ, जाणइ नांहि महेलउ रे । सालइ कुवचन खरउ दुहेलउ,
ज्यु आगुरी इत हेलउ रे ॥सु०॥३॥ रजक विचारउ पर मल धोवइ, सो भी लाहउ जोवइ रे। विण स्वारथ निंदक मल धोवइ,
आपहि आप विगोवइ रे ॥२०॥४॥ जिण विण निरदूषण नहिं कोइ, तउ भी कहणा जोई रे। झूठ गुमान कीयइ क्या होई, पछतावइगा सोई रे ॥सु०॥५॥ पर के वयण सुरणी न पतीजइ, सो नर चतुर कहोजइ रे। जउ अपणे नयणे देखीजइ,
तउह विचार करीजइ रे ॥सु०॥६॥ अपणी करणी पार उतरणी, पर की तात न करणी रे। 'राजसमुद्र' पभणइ मन हरणी,
ज्यु पावउ शिव घरगी रे ॥सु०॥७॥ आत्म शिक्षा (विणजारा) गीत . विणजारा रे वालभ सुणि इक मोरी बात,
तू परदेशी पाहुणउ वि० । विणजारा रे मकरि तू गृहवास,
आज काल मई चालणउ वि० ॥१॥ वि० रसिक न कीजइ मीत, वात न पूछइ विरह री वि० । वि० चउरासी लख नारि, तइ परणी तइ परिहरी वि०॥२॥ वि० जण जण सेती प्रीति, करि पीछइ पचताईयइवि० । वि० जाकउ अविहड़ नेह, ताहीस्यु चित लाईयइ वि० ॥३॥