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श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई
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अतुलो बल अरिहंत, अकल त्रिभुवन घरणी रे ।। १० सेवइ चउसठि इद, जास महिमा घणी रे ॥१॥जा०॥ चक्रवत्ति सुर सोले, सहस सेवा करइ रे । स० जासु आरण षटखड, वहइ सिर ऊपरइ रे ।। व० वासुदेव बलदेव, भुजाबल प्रापरइ रे । भु० युद्ध तीनसइ साठि करइ जयश्री वरइ रे ॥६॥क०॥ ते पिण पुरुष प्रधान, विधाता स हरथा रे। वि० परभव दोन अनाथ, तरणी परि सचरथा रे ।। त० सूधा साधू महत, सु सिद्धि वधू बरथा रे। काल करम चडाल, थकी ते ऊवरीय रे ||७१०|| मिलइ न्याति दिन राति, मुखइ हाहा कहइ रे । मु० पाणी बल पिण काल, न को थोभी रहइ रे ॥ न० जिम मृगलउ मृगराज, उपाडी नइ वहइ रे । ऊ खाँडी हाडी साथि, आथि के संग्रहइ रे ।।८।। लहि मानव अवतार, सुकृत करिस्यइ नही रे । सु० पछतावइ परलोक, जई पडिस्यइ सही रे । ५० कही बात भगवत, सहु मइ सरदही रे। लागी मीठी जेम दूध साकर दही रे ||६|दू०॥
[सर्व गाथा ३०४] ॥ दूहा सोरठी। काल्हा काल्ही वात, करतउ स्यु लाजइ न छइ। जउ सांभलिसी तात, चलता* भुइ भाररिण हुस्यइ ॥१॥ काने पडिसी ज्यार, हरि रूडा समझाविस्यइ । तू तउ जाणिसि त्यार, इतली वोसी सउ हुवइ ॥२॥ ते हासउ ही बालि, जिरण हासइ घर ऊपड़इ । ते किम कीजइ आलि,प्रागलि जिण अनरथ हुवइx ॥३॥
सिर्व गाथा ३०७] * वलता x वर्ष