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प्रतियां हरिसागरसूरि ज्ञानमंडार. लोहावट और भंडारकर पौरियन्टल-इस्टोट्यूट, पूना मे है और एक पूर्ण प्रति जयपुर के एक जेनेतर विद्वान के संग्रह मे महोपाध्याय विनयसागर जी ने देखी थी। पर इन प्रतियो मे भी अतिम प्रशस्ति नही है । इसलिए इस टीका की एक रचना किस संवत् मे कहा हुई,ज्ञात हो नही सका। इस वृहद्वृत्ति से उनका काव्यशास्त्र का निष्णात होना सिद्ध होता हैं । इस तरह जिनराजसूरि एक बहुत बड़े विद्वान और सुकवि सिद्ध होते हैं, जिनकी प्राप्त राजस्थानी कविताओ का स ग्रह इस प्रथ मे प्रकाशित किया जा रहा है।
जिनराजसूरि का शालिभाद्र रास तो जैन समाज मे इतना अधिक प्रसिद्ध हुआ कि उसकी से कडो हस्तलिखित प्रतियाँ गाँव २ और नगर २ मे पाई जाती हैं । केवल हमारे संग्रह में ही उसकी २५ प्रतिया हैं । इस रासकी लोकप्रियता उसके रचे जानेके समयसेही पाई जाती है। सं० १६७८ के पाश्विन बदि ६ को २६ ढालो वाला यह रास रचा गया था। सं० १६८८ की लिखी हुई प्रति के अनुसार इसकीरचना प्राचार्य श्री ने अपने भ्राता गेहा का अभ्यर्थना से की थी। प्रशस्ति इस प्रकार है
बोहित्थव शीयावतसीयमान तिस्ममात महिमा निधान निविगान, यशोवितान सावधान प्रधान विद्वज्जनदर्शिताष्टावधानाधिगत चतुर्दश विद्यास्थान श्री शत्रञ्जय तीर्थाष्टमोद्धार प्रतिष्ठा विधान लव्धमानवमन वामनधीमान मान नान जगम युगप्रधान श्रोजिनसिंहमूरिभि वि रचर्या चक्रे । साह धर्मसी धारलदेवी पुत्ररत्न शाह गेहाख्या भ्रातुरभ्यर्थनयानन्दतादाच द्राकै श्रोतध्यात्रि सुखप्रदा सं० १६८८ वर्षे पंडित ज्ञानमूर्ति लिखित फागुण सुदि १४ दिने। शुभं भवतु श्री जालोर मध्ये ।
[पत्र २४ । डाह्याभाई वकील सूरत के संग्रह मे ] प्रस्तुत रास की प्रशरित मे 'श्री जिनसिंहसूरि शीश मति
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