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और भक्त कवियों की तरह 'प्रभु ही सब पतितन को टीको' है। ___कवि पश्चाताप करता है कि वह प्रभु का ध्यान नही कर सका। उसने बचपन इधर-उधर भटकने मे, यौवन भोग-विलास में और बुढ़ापा इन्द्रियों की शिथिलता के कारण यों ही व्यतीत कर दिया फिर भी प्रभुने उसे अपना लिया । यह प्रभु की उदारता, भक्त-वत्सलता और महानता नही तो क्या है ? कबहूँ मइ नीकइ नाथ न घ्यायउ । कलियुग लहि अवतार करम वसि, अघ घन घोर बढायउ ||१|| बालापरण नित इत उत डोलत, घरम कउ मरम न पायउ।। जोवन तरुणो तनु रेवा तट, मन मातंग रमायउ ॥२॥ . बूढ़ापणि सव अंग सिथल भए, लोभइ पिंड भरायउ । तउ भी तुम्ह करिहउ अपणाई, या 'जिनराज' बडाई ॥३॥
(पृ०६२-६३) जीवन की नश्वरता का चित्र देखियेकइसउ सास कइ वेसास। कुस अणी परि प्रोस करणकी, होत कितक रहास ||१|| जाजरी सी घरी वाकइ, वीचि छिद्र पचास । तिहा जीवन राखिवइ की, कउण करिहइ आस ||२|| रयरण दिन ऊसास कइ किसि, करत गवरण अभ्यास । जग अथिर 'जिनराज' तामइ, लेहु थिर जसवास ॥३॥
(पृ० १०७.८) _ 'शील बत्तीसी' व 'कर्मवतीसो' में शीलधर्म तथा कर्म की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है । शील-माहम्य मे कवि कहता है-- सील रतन जतने करि राखउ, वरजउ विषय विकारजी। सीलवंत अविचल पद पामइ, विषई रूलइ ससार जी । सीलवंत गिमइ सलहीजई, सीधइ वंछित कोदिजी।'
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