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हैं। यही बात जिनराजसूरि के बारे भी कही जा सकती है। फिर भी जिनराजसूरि उन सामान्य कवियो मे से नही है जो भाषा के अलकरण से एक दम दूर रहते हों। उनमे सादगी के साथ साथ साहित्यिकता भी है भावावेग के साथ साथ अलकरण भी है, पर सेर्वत्र कृत्रिमता और कारीगरी को बचाकर । ___भाषा सरल राजस्थानी । सरस और सुबोध । इनका विहारक्षेत्र गुज़रोत भी रहा अत. गुजराती का पुट भी यत्र-तत्र देखने को मिलता है । भाषा माधुर्यगुण और नाद-सौन्दर्य से सम्पन्न हो उसमे अनुप्रास की छटा भी देखी जा सकती है यथा (१) मेरइ नेमिजो इक सयरण।।
अउर ठउर न दउर करिहैं, कबहुं मो मन भयण शामे० सुण्यउ निसि भरि जवहि चातक, रटत पिउ पिउ वयन । पलक वादल वोचि उमडे, सजल जलधर नयन ॥२॥मे०
(पृ० ४७) (२) 'आज घडी सुघडी लेखइ पडी, जीवन जनम प्रमाण । भगति जुगति 'जिनराज' जुहारता, आज भलइ सुविहाण ७।
(पृ० ४६) (३) मारगि है सखि मारगि सहियर साथि,
'चालण हे 'सखि चालण पगला चलवलइ। भेटणं हे सखि भेटण आदि जिणंद, मो मनि हे सखि मो मनि निसदिन टलवलइ ॥३॥
(पृ० ३४) अर्थालकारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा विशेष प्रयुक्त हुए है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं। , उपमा:(१) मेरइ मनि तुंही वसइ रे, ज्यु रयणायर मीन रे (पृ० ३१) (२)नारणपण सरस व समउ, चिहुँ माहे हो कहूं मेरु समान(पृ०४०)