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श्रीशत्रुजय (मालोयणा) स्तवन
तेहिव सूधउनविपलइ, किम कोजइहो ए सबल विचार।क०।५। लोक अवर जाणइ नही, तू जाणइ हो सहु कोनो धात । तुझ अर्गाल स्यु राखीयइ,
कर जोड़ी हो कहु वीतक वात ॥०॥६॥ त्रिविध त्रिविधि व्रत ऊचरी, गरु साखइहो दिन मांहि छबार। हेलायइं भाज्या वली मझलागा हो केता अतिचार ॥०॥७॥ आप सवारथ राचतइ, मन माहे हो नाणी पर पीड़। जीव विचारउ जाणिस्यइ,
जव थास्यइ हो भमतां भव भीड़।।क०॥८॥ पर अवगुण अछता कह्या, गुण लेवा हो ते तउ रहउ दूर । अछता गुण पोता तणा, विस्तारी हो कहुं लोक हजूर।का। परधन लीधउ अपहरी, मइ राखी हो थांपणि करि कूड़। दुरजन वचन सहया नही, ___ किम थास्यइ हो निज करम नउ सूड ।।क०॥१०॥ जउ हूं काया वसि करू', चित चूकइ हो तउ पणि ततकाल । पाचे इंद्रिय मोकला, मोरा सामीहोए दूसम काल ।।क०॥११॥ विषयामिष रस नइ वसइ, लपटाणइ हो मन मीन दयाल । विविध, नरक तिरजंचनी,
.." न विमासी हो वेदन विकराल ॥१२॥क०॥ चंचल नयण करइ घणी, चपलाइ हो पर नारि निहालि। व्यापक दोष वचन तणा, .
जे लागइ हो ते न सकटालि ॥क०॥१३॥
.दोन