Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 17
________________ शंका ६ और उसका समाधान ३८७ और भट्टाकालंकदेव तथा आचार्य विद्यानन्दीने उसको अष्टशतो तथा अष्टसहस्री टीकामें 'दोषावरणयोहानिः' इत्यादि कथन उक्त तथ्यको ही ज्यान रखकर किया है, क्योंकि उक्त आचार्योंने 'उपादानस्य उत्तरीभवनात् इत्यादि कथन उक्त कार्यकारणपरम्पराको ध्यान में रखकर ही किया है। भगवान् कुन्दकुन्दने भी 'जीवपरिणामहेहूं' इत्यादि कथन द्वारा इसो कार्य-कारणपरम्पराको सूचित किया है। 'असंख्यातप्रदेशी जीवको जब जैसा शरीर मिलता है तब उसे उसका परिणमना पड़ता है ऐसा जो कथन किया जाता है सो यहाँ भी उपादान और निमित्तोंको उक्त प्रकारसे कार्य-कारणपरम्पसको स्वीकार कर लेने पर ही सम्यक व्यवस्था बनती है, क्योंकि उपादानरूप जीवमें स्वयं परिणमनकी योग्यता है अतः शरीरको निमित्त कर स्वयं संकोरविस्ताररूप परिणमता है। इस प्रकार अपादान (निश्चय ) और निमित्तों ( व्यवहार )का सुमेल होनेसे लोक, जब जितने कार्य होने है उनकी पूर्वोक्त प्रकारसे सम्यक् व्यवस्था बन जाती है। भट्टाकलंबादेवने अपनी मष्टशतीमें 'तादृशी जायते बुद्धिः' इत्यादि कारिका ली है सो वह भी इसी अभिप्रायसे लो है। पूरी कारिका इस प्रकार है ताहशी जायते बुद्धि व्यवसायश्च तादशः सहाया: तारशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥ जैसो होनहार होती है उसके अनुसार बुद्धि हो जाती है, पुरुषार्थ भी वैसा होने लगता है और सहायक कारण ( निमित्त कारण ) भी वैसे मिल जाते है। ततीय दौर “शंका ६ प्रश्न यह था-'उपादानको कार्यरूप परिणति में निमित्तकारण सहायक होता है या नहीं ?' प्रतिशंका ३ इस प्रश्न का उत्तर दिखते हुए आगने निष्कर्ष के रूप में अपना मन प्रथम उत्तर पत्रकमें निम्न प्रकार प्रगट किया था 'उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें अन्य द्रव्यको विवक्षित पर्याय निमित्तकारण होती है, परन्तु यहाँ पर यह स्पष्ट हपसे समझना चाहिये कि उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें अन्य द्रव्यको नियक्षिस पर्यायको आगममें जो निमित्त करणरूपसे स्वीकार किया है सोवह वहां पर व्यवहारनयको अपेक्षा ही स्वीकार किया जयकी (पर्यायायिक निश्चनयकी) अपेक्षा नहीं।' आपने जिस प्रक्रिया के साथ यह उत्तर लिखा था वह प्रक्रिया भी यद्यपि अर्चनीय थो, परन्तु हमने अपनी प्रतिवर्णकारमें आवश्यक न होने के कारण उस प्रक्रियापर विचार न करते हुए प्रकृत विषयको लेकर केवल प्रकृतोपयोगी रूपसे ही आपके उत्तर पर विचार किया था तथा अब यह प्रतिशंका भी उसी दृष्टिकोणको अपनाकर लिखी जा रही है। आपनं अपने प्रथम उत्तर में यह तो स्वीकार कर लिया है कि विवक्षित वस्तुसे विवक्षित कार्यको उस्पत्ति में विवक्षित अन्य वस्तु अपनी विवक्षित पर्यायके साथ निमित्तकारण होती है परन्तु इसमें स्पष्टीकरणके रूप

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