________________
उसका कभी विनाश नहीं होता। इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - तीनों साथ-साथ रहते हैं। दूसरी शब्दों में द्रव्य और पर्याय - दोनों साथ-साथ रहते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर भगवान महावीर ने इस त्रिपदी की प्ररूपणा की - ' उप्पण्णेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा । सत् (पदार्थ) उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है और ध्रुव भी रहता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के साथ सत् का अविनाभावी संबंध है।
इस प्रकार अन्य दर्शनों में उपलब्ध सत् की अवधारणा का आधार जहाँ एकान्तवाद है, वहीं जैन दर्शन में सत् के स्वरूप का निर्धारण अनेकान्तवाद के आधार पर किया गया है। उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु में दो अंश होते हैं। एक अंश तो तीनों कालों में शाश्वत रहता है और दूसरा अंश सदा बदलता रहता है। इन दो अंशों में से किसी एक को स्वीकार करने से वस्तु केवल नित्य या केवल अनित्य प्रतीत होती है । परन्तु दोनों अंशों को स्वीकार करने से वस्तु का पूर्ण या यथार्थ स्वरूप ज्ञात हो सकता है। इसलिए प्रत्येक सत् पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है।
सत् (द्रव्य) के प्रकार
द्रव्य या तत्त्व कितने हैं? इस प्रश्न का उत्तर विभिन्न ग्रंथों में विविध रूपों में दिया गया है। जहाँ तक द्रव्य सामान्य का प्रश्न है, सब एक हैं। वहाँ किसी प्रकार की भेद- कल्पना उत्पन्न ही नहीं होती । जो सत् है, वही द्रव्य है और वही तत्त्व है।
यदि हम द्वैत दृष्टि से देखें तो द्रव्य को दो रूपों में देख सकते हैं। ये दो रूप हैं- जीव और अजीव । चैतन्य लक्षण वाले जितने भी द्रव्य विशेष हैं, वे सब जीव विभाग के अन्तर्गत आ जाते हैं। जिनमें चैतन्य नहीं है, वे सभी द्रव्य विशेष अजीव विभाग के अन्तर्गत आ जाते हैं।