Book Title: Jain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Author(s): Rujupragyashreeji MS
Publisher: Jain Vishvabharati Vidyalay

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Page 11
________________ भारतीय दर्शन में सत् का स्वरूप --- . 'सत्' शब्द अस्तित्व का वाचक है। विश्व में जितने भी अस्तित्ववान पदार्थ हैं, वे सब सत् हैं। जड़ और चेतन-दोनों प्रकार के पदार्थों का समावेश सत् में हो जाता है। इस दृष्टि से सत्, वस्तु, तत्त्व, द्रव्य, पदार्थ एक ही अर्थ के बोधक शब्द हैं। सत् के स्वरूप के सन्दर्भ में भारतीय दर्शन में पांच मान्यताएँ हैं 1. सत् का स्वरूप कूटस्थ नित्य है। उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता। वेदान्त दर्शन इस सिद्धान्त का समर्थक है। 2. सत् का स्वरूप अनित्य है। वह हर क्षण परिवर्तनशील है। बौद्ध दर्शन इस सिद्धान्त का समर्थक है। ___3. चेतन सत् (पुरुष) कूटस्थ नित्य तथा अचेतन सत् (प्रकृति) परिणामी नित्य है। सांख्य दर्शन इस सिद्धान्त का पोषक है। 4. परमाणु, आत्मा आदि कुछ सत् कूटस्थ नित्य तथा घट-पट आदि कुछ सत् अनित्य हैं। इस मत के समर्थक न्याय-वैशेषिक हैं। 5. सत् पदार्थ न एकान्ततः नित्य और न एकान्ततः अनित्य हैं अपितु परिणामीनित्य अर्थात् नित्यानित्य हैं। यह मंतव्य जैन दर्शन का है। जैन दर्शन में सत् । सर्वप्रथम आचार्य उमास्वाति ने सत् को परिभाषित करते हुए लिखा-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। यत् सत् तत् द्रव्यम्। गुणपर्याययुत द्रव्यम्। सत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है। जो सत् है, वही द्रव्य है और जो द्रव्य है, वही सत् है। द्रव्य वह है, जो गुण-पर्याय से युक्त है। इस प्रकार सत् (द्रव्य) के सन्दर्भ में दो अवधारणाएँ सामने आई

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