Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1918 Book 14
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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સભાપતિ શેઠ ખેતસીભાઇકા વ્યાખ્યાન ध्यान देना; और (३) आकस्मिक लाभसे फूल न जाना और आकस्मिक हानिसे घबरा न जाना बल्के साहस और धैयके साथ आगे बढ़नेके लिए प्रयत्न करते रहना । और मेरा तो ऐसा विश्वास है कि किसी भी जाति, सयाज या देशकी अभिवृद्धिके लिए उक्त तीन बातोंके सिवा अन्य कोई भी बात विशेष अच्छी और सरलतासे व्यवहारमें आनेवाली नहीं है । व्यापारमें कविता या कल्पनाकी कूद फाँद काम नहीं देता और न देवोंकी की हुई प्रार्थनासे ही कुछ लाभ होता है। इसमें तो शुष्क तथ्यों ( Dry facts ) और गिनतिओं ( Figures ) पर पूरा ध्यान देकर प्रकाशमान भविष्यकी आशामें अश्रान्त परिश्रम करना ही फलप्रद होता है । और इसी लिए, मेरे प्राणप्रिय साधर्मी भाइयो, यदि मैं मीठी मीठी बातों, हवाई कल्पनाओं और क्षण २ में उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली विचारतरंगोसे आपको प्रसन्न न कर सकूँ और रूखी हकीकतों व घबरा देनेवाले आँकडोके रस्ते ले जाऊँ तो मुझे एक व्यापारी समझकर क्षमा करना ।
जिस तरह जैनसमाज अब तक अपनी कुछ उन्नति नहीं कर सका इसी तरह जैन 'कॉन्फरंस' भी आगे न बढ़ सकी, इसका मुख्य कारण मुझे तो 'जीवित श्रद्धा' ( Living faith ) का अभाव प्रतीत होता है । मैं इस समय क्रियाकांडके ऊपर हमारी जो श्रद्धा है उसके विषयमें नहीं कहता हूँ। मगर मैं उस श्रद्धाकी तरफ आपका लक्ष खींचना चाहता हूँ जिसमें मनुष्य यह विश्वास रखता है, कि मैं उन्नतिशील, प्रति दिन आगे बढ़नेवाला और अपने आवरित अनन्त ज्ञान ओर शक्तिको प्रकाशमें लानेकी योग्यता रखनेवाला आत्मा हूँ । इसी श्रद्धाको मैं 'जीवित श्रद्धा' कहता हूँ। अपने शरीर, गृहसंसार, व्यापार, राजकीय प्रवृत्ति, संघ, गुरु आदिके संबंध जब कभी कुछ विचारनेका अवसर आवे तब यह श्रद्धा हमारे हृदयमें जागृत रहनी चाहिए । जिस गृहसंसारसे, जिस व्यापारसे, जिस सम्मेलनसे, जिस सुधारसे, जिस गुरुसे, जिस क्रियाकाडसे और जिस राजकीय आन्दोलनसे हम अपने और अपने आसपासके आत्माओंको थोड़ेसे भी विकसित नहीं कर सकते हैं, वह गृहसंसार, वह व्यापार, वह सम्मेलन, वह सुधार, वह गुरु, वह क्रियाकांड, और वह राजकीय आंदोलन मेरी सम्मतिमें तो बिलकुल फिजूल है, त्याज्य है, जड़वाद है । उसका आडंबर चाहे कितना ही मोहकहो और ऊपरसे उसमें चाहे कितना ही लाभ दिखाई देता हो, परंतु वस्तुतः तो वह हानिकर ही है। हमारी सारी प्रवृत्तियाँ-क्या व्यक्तिगत और क्या सामाजिक-इसी जीवित श्रद्धाके