Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 16
________________ 7 आज से २५ हजार वर्ष पहिले जब वर्धमान स्वयं विद्यमान थे तब आज के समान उपदेश प्रचार के लिये आवश्यक साधनों का अभाव था । यद्यपि लेखन कला तो उस वक्त भी अस्तित्व रखती थी, परन्तु उसका उपयोग विशेषतः व्यवहार विभाग में ही प्रचलित था। मुमुक्षु, श्रमणोपासक श्रावकों और श्रमणों में सत्संग की प्रवृत्ति प्रचलित थी। जब वे वर्धमान के पास या अन्य किसी बड़े श्रोताकी योग्यता के अनुसार उसके हितकी दो चार बातें विधेय रूप से - ( ऐसा करो ही यह नहीं परन्तु ऐसा करना चाहिये इस रीति से) प्रदर्शित करते और श्रोताजन उनहित की बातों को स्वनाम के समान याद कर लेते थे। जिन बातों में अपना विशेष हित समाया हो उन बातों को पत्तों या कागजों पर लिख लेने की अपेक्षा मंत्र के समान हृदय में अंकित कर रखना विशेष उचित है यह समझ कर भी वे उपदेश को न लिखते लिखते हों यह बात सम्भवित है। श्री वर्धमान के मुख्य शिष्यों ने अपने अनुयायियों को सिखलाने के लिये वर्धमान के उन उपदेशों को सक्षेप में संकलित कर रक्खा था और सो भी कण्ठाग्र ही रहता था। जब कभी प्रसंग आता तब श्री वर्धमान ने ऐसा कहा है या श्री वर्धमान के मुख से ऐसा सुना है इस रीति से उन उपदेशों का विवेचन या व्याख्यान किया जाता था। वे सब उपदेश पालीभाषा के समान उस समय की लोकभाषा - मागधी मिश्रित प्राकृत भाषा में होने के कारण समस्त जनता को समझने में सुगम और सुलभ होते थे, एव श्रावक, श्राविका, साधु या साध्वीको शक्ति में अनुसार न्यूनाधिक प्रमाण में कण्ठस्थ रहते थे। वर्तमान समय में जिसे हम एकदशांग सूत्र कहते हैं उसके वे मूल उपदेश थे। वे मूल उपदेश और वर्तमान एकादशांग सूत्र, इन दोनों में काल क्रमेण भाषा दृष्टि और अर्थ दृष्टि से कितना परिवर्तन हुआ और वैसा होने के कारणों के सम्बन्ध मैंने एक खास जुदा निबन्ध लिखा है। उसका कितना एक विशेष उपयोगी विभाग नीचे टिप्पण में देता हूं" जैन दर्शन नित्यानित्यवाद का समर्थन करता है, उसकी दृष्टि से वस्तु का मूल तत्त्व कायम रहता है और उस मूल तत्त्व की परिस्थिति के अनुसार अनेक रूप परिवर्तित होते रहते है। यह परिवर्तन व्यवहारिक और उपयोगी भी है, किन्तु आकाश मूर्त रूप धारण करे और जड़ चेतन रूप में परिणत हो ऐसे सर्वथा मिथ्यावाद का जैन दर्शन प्रबल विरोध करता है। इसका यह कारण है कि इस सिद्धान्त में मूल पदार्थ स्वरूप से ही भ्रष्ट हो जाता है। इससे हम यह समझ सकते है कि मूल पदार्थ को कायम रखकर संयोगानुसार उसका परिवर्तन जैन दर्शन को सम्मत है, किन्तु मूल पदार्थ का स्वरूप भ्रंश तो सर्वथा असह्य और अनिष्ट है।

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