Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 53
________________ 44 मान्यताओ को श्री महावीर के नाम पर चढ़ाने की धुन मे वे एक ऐसे समय की राह देखते थे कि जिसमे प्रगट रूप में विरोध किये बिना ही सदा के लिये सर्वथा जुदे हो जायें। वीर निर्वाण के बाद का यह समय देश की प्रजा के लिये बडा ही भीषण था। मगध देश में जहाँ वर्धमान का सामग्रज्य था दर्भिक्ष के बादल छा गये। वीर निर्वाण को अभी पूरे दो सौ वर्ष भी न बीतने पाये थे कि देश मे भयकर दर्भिक्ष शुरू हो गया। बड़ी कठिनाइयों का सामना करके देश यथा तथा उस दर्भिक्ष को पार कर कुछ ठीक स्थिति में आ रहा था कि इतने ही में वीर निर्वाण की पांचवी-छठी शताब्दी मे पुन. बारह वर्षीय अकाल राक्षस ने मगध को अपने विकराल गाल मे दबा लिया। यह बडा भयकर अकाल था, इसमे त्यागियो का तप भी डोलायमान हो गया था, आचारो मे महान् परिवर्तन हो गया था और अन्न के अभाव से दिन प्रतिदिन स्मरण शक्ति नष्ट होने लगी थी। इससे परम्परागत जो कठस्थ विज्ञा चली आ रही थी वह विस्मृत होने लगी थी इतना ही नही किन्तु उसका विशेष हिस्सा विस्मृत ही भी चुका था। शेष बचे हये श्रुत को किसी तरह कायम रखने की भावना से दुर्भिक्ष के अन्त मे मथुरा में आर्य श्रीस्कंदिलाचार्य ने विद्यमान समस्त श्रतधरो को एकत्रित किया। उनमे जो मताग्रही, मुखशील और नरम दल के मनि थे वे भी आये। परन्त इसी मे मतभेद पड़ा और वह यह कि मनियो के आचार के लिये क्या लिखना चाहिये? क्या नग्नता का ही विधान किया जाय या वस्त्रपात्रता का? एक पक्ष कहता था कि नग्नता ही विधान होना चाहिये, दूसरा पक्ष वस्त्रपात्रता के विधान की बात पर जोर दे रहा था। इस प्रकार की पारस्परिक तकरार होने पर भी दीर्घदर्शी स्कादिलाचार्य ने और उनके वाद के उद्धारक देवर्द्विगणी क्षमाश्रमणजी ने सूत्रो मे कही पर भी केवल नग्नता या मात्र वस्प पात्रता का ही उल्लेख नहीं किया, परन्तु दोनों बातो का सघटित न्याय किया है। माथरी वाचना के मूलनायक पुरूष और बलभी वाचना के नायक पुरूष, इन दोनों महात्माओं का मैं हृदय पूर्वक कोटिशः अभिनन्दन करता हैं कि उन्होंने उस २ समय के किसी तरह के वातावरण में न आकर आचार प्रधान आचारांग सूत्र में मुनियों के आचारों की संकलना करते हये मात्र साधारतया ही भिक्ष और भिक्षणी के आचार बतलाये हैं। उसमे कही पर भी जिनकल्प या स्थविर कल्प एव श्वेताम्बर या दिगम्बर का नाम तक भी नहीं आने दिया। धन्य है उन महापुरूषो की अनाग्रहीता को, धन्य है उनकी मुमुक्षुता को और धन्य है उन निस्पक्ष पुरूष रत्नो की जननी को। जो विचारक पुरूष आचाराग सूत्र मे दिये हुये भिक्षु तथा भिक्षुणियो के आचार को बिना कदाग्रह के सिर्फ एक ही दफा पढ़ लेगा उसके मन में मेरे उपरोक्त

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