Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 86
________________ भिक्षुओं के समान लोक सेवा कर सके और अपना भी श्रेय साध सकें। इस मदयम मार्ग का अनुसरण करने वाले जैन मुनियो ने अपने उस मार्ग का कोई खास नाम रक्खा हो यह जानने में नहीं आया और उस मार्ग का जुदा नाम होना सभवित भी नहीं होता, क्योकि उन जैनमुनियों ने वह तो मात्र श्रीवर्धमान के कठिन त्याग आचारो को कुछ नरम बनाया था, मठवास या वंसतिवास को अंगीकार किया था, वस्त्र पात्र की उपयोगिता तो उन्हें सम्मत ही थी। उपदेश द्वारा, ग्रन्थरचना द्वारा, मत्र तत्र द्वारा और निमित्त ज्ञान द्वारा वे निरीह भाव से लोगो की निर्दोष सेवा करने के इच्छुक थे और वैसा करके बुद्ध मार्ग के समान श्री वर्धमान के मार्ग को फैलाने की उनकी उच्च कामना थी। इस सरल मार्ग मे तत्ववाद से लगता हुआ कोई खास भेद न था परन्तु मात्र आचारों की ही सरलता थी, इसी से कुछ विशेषता रहित उस सरल मार्ग को जुदे नाम से उस समय के सक्षुभित भिक्षुसंध में फूट डालना उन्हे अनुचित प्रतीत हुआ हो और इसी कारण उन्होने उस मार्ग को किसी जदे नाम से न प्रगट किया हो यह सभव है। मैं यह बात भी मानता हूँ कि ज्यों साधारणतया हुआ करता है त्यो इस मार्ग मे भी कालक्रमेण पक्षापक्ष होता रहा होगा, मताग्रह प्रचलित रहा होगा और हठवाद भी बढ़ता रहा होगा, एव उसके अन्तिम परिणाम मे श्वेताम्बर दिगम्बर के समान क्षुल्लक भेद के कारण इस निर्नाम मार्ग को अन्य मार्गों के सदृश सर्वथा जुदा होना पडा होगा। यदि हम यह बात माने कि महावीर निर्वाण से दूसरी शताब्दी मे यह निर्नाम मरल मार्ग प्रचलित हुआ होगा और उसके बाद की पाचवी छठी शताब्दी बीतने तक पक्षापक्षी, मताग्रह और हठवाद का रसायन सेवन करके वह पुष्ट हुआ हो तथा अन्त मे महावीर निर्वाण से ८८२ वर्ष में चैत्वास के नाम से प्रगट हआ हो तो यह भी विशेष सभव है। महावीर निर्वाण से ८८२ वर्ष मे प्रगट हुये चैत्यवास की जड मुझे इस सरल मार्ग मे ही भासित होने के कारण मैने इस प्रकार का उल्लेख किया है। किसी भी धार्मिक स्थिति का प्रारभ बहुत ही सादा होता है और कल्याणकारी एव लोक हितकारी होता है, परन्तु जब उसमे आग्रह, अन्धता और अविवेकता का मिश्रण होता है तब उसे एक जुदे पथ या सप्रदाय रूप मे गिनते हैं। जिस वक्त उसमे स्वाछद्य, विलासिता और स्वार्थ की मात्रा अधिक प्रमाण मे बढ जाती हैं तब स्वय ही उसका अन्तकाल आ जाता है तथा उस एक ही मार्ग की अन्तकाल की स्थिति मे और प्रारभिक स्थिति मे इतना अधिक अन्तर मालम होता है कि जितना नर और खर मे होता है। 'श्रीहरिभद्रसरिजी ने जिन मनियो का खेदजनक चित्र अपने ग्रन्थ मे दिया है

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