Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 98
________________ स्वच्छंदता से उनकी आज्ञा न माने और स्वच्छंद बर्ताव करें तो हम अपने सिवा और किसे दूषित गिन सकते है? उनके पूर्वोक्त उल्लेखो से यह भी मालूम होता है कि उस समय दोनो पक्षो ने शाश्वतद्रव्य या जिन द्रव्व शब्द की व्याख्या अपने २ बचाव के लिये जुदी २ की थी। एक पक्ष में संकुचित और दूसरे ने विशाल की थी। चैत्यवास की हिमायत करने वाले पक्ष ने कहा कि यह जिनद्रव्य हमारी पैत्रिक सम्पत्ति है, हम ही इसके वारिस हैं। हम स्वय ही देव, देवमूर्ति, देवमंदिर और देव प्रवचन की तमाम व्यवस्था करते है अतः हमारे सिवा अन्य कोई भी इस द्रव्य का उपयोगी नही कर सकता। दूसरे निरीह और शासन हितैषी पक्ष ने कहा कि यह साधुओं का आचार नही है कि वे द्रव्य का स्पर्श भी कर सके या मंदिरों की व्यवस्था करे। उनके पास या उनके अधिकार मे जो द्रव्य है वह मंगलद्रव्य, जिनद्रव्य, शाश्वत द्रव्य और निधिद्रव्य है. इस लिये उसका उपयोग कोई एक व्यक्ति या समष्टि अतने निर्वाह या विलास के लिये कदापि नहीं कर सकता। उसका उपयोग तो ऐसे कार्यों मे करना चाहिये जिन कयों से जिन प्रवचन की वृद्धि, सर्वज्ञ के ज्ञान का प्रचार हो तथा जैन धर्म की ओर सर्वसाधारण जनता की विशेष प्रवृत्ति हो, अर्थात् जैन सघ के हितार्थ ही उस द्रव्य का वयय होना उचित है, यह बात सर्वथा प्रामाणिक, शास्त्र से अबाधित और विहित विहित है। मुझे खेदपूर्वक लिखना पडता है कि वर्तमान समय मे यह स्थिति तो दूर रही परन्तु वह पवित्र निधिद्रव्य जो सहित के लिये नियोजित किया गया है उसका उपयोग मात्र एक सकचित क्षेत्र मे ही हो रहा है, परन्तु इस मे उस द्रव्य के व्यवस्थापको की ही स्वच्छदता कारण है। व्यवस्थापको का उस द्रव्य पर ममत्व होने से उसे वे अपने बाप की पूजी समझ बैठे हैं, इसी कारण अन्य धार्मिक क्षेत्रो (जिन क्षेत्रो की पष्टि की वर्तमान काल मे विशेष आवश्यकता है) के लिये वह द्रव्य शूद्र के समान अस्पृश्यसा हो गया है और पोषण न मिलने से वे क्षेत्र प्रतिदिन सखते जा रहे हैं। आधुनिक काल मे जिन कारणो से उम द्रव्य की वृद्धि हो रही है उन मे से बहुत से कारण तो सर्वथा अविहित हैं और क्तिनेक कारण ऐसे है जिन पर विचार करने से हसी आती है। व्यवस्थापको की ममत्व पूर्ण मत्ता से उस द्रव्य का उपयोग हिसा के मूल हैं और उनमे सट्टे जैसे जबे का भी समावेश होता है। जिन प्रवृत्ति का श्रीजिनभगवान ने निषेध किया हो उसके द्वारा जिन द्रव्य की वृद्धि करना या उसमे जिनद्रव्य का उपयोग करना यह श्री जिन भगवान के अनुयायियों को कितना अधिक शोभता है!!! यह बात उनके जैन नामको कितना सार्थक करती है!!! मानलो कि यदि हमारे पूज्य देव श्रीमहावीर भगवान आज 89

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