Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 103
________________ नही रहता। हीरा और रत्न रखने से निर्ग्रन्थ की निर्ग्रन्थता पर पानी फिर जाता है। सूत्रों में आये हुये चरित विभाग में ऐसे अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन सूत्र के मूल मुद्दे को हानि पहुँचाते हैं। ऐसे वर्णनों से हमारा कथानुयोग कैसा शोभता है इस पर विचार करके पाठक स्वय ही न्याय करें। भगवान वर्धमान के लिये लिखा गया है कि उन्होने दीक्षा ली तब उनके पास इन्द्र का दिया हुआ देवदृष्य था, जिसका मूल्य बाद मे लाख स्वर्णमोहरो जितना माना गया था। यहां पर मैं प्रश्न करता हूँ कि निर्ग्रन्थों के नामक और कठिन त्याग के प्रवर्तन भगवान वर्धमान, जिनके मुख्यशिष्य सुधा ने उनके नाम से जम्बू को यह सदेश दिया था कि भगवान वर्धमान ने फटा टूटा और उतारा हुआ वस्त्र वह भी कारण पड़ने पर ही रखने की अनुमति दर्शाई है ऐसे समर्थ त्यागी ज्ञातपत्र के जीवन मे यह देवदृष्य वाली बात सगत हो सकती है? मानलो कि वे उस वस्त्र को अमर्जाभाव से रखते थे, परन्तु ऊपर कथन की हई अनुमति के दर्शानेवाला स्पर्श भी किस तरह और किस कारण से कर सकता है? वर्तमान समय में भगवान वर्धमान जैसे असहकारके प्रबल प्रवर्तक महात्मा गाधी यदि अमक कारणपर्वक और प्रजा के हित के बहाने से सरकार के साथ सहकार करे और दूसरो को अमहाकार का उपदेश दे यह बात जितनी सगत या असगत मालूम देती है उतनी ही भगवान वर्धमान के लाख सुवर्णमोहरो के वस्त्रवाली बात भी मगत या अमगत मालूम होती है। कहा जाता है कि भगवान महावीर ने राजपिड या देवपिड मुनियो के लिये निषेध किया है, परन्तु इस जगह तो वे देवपिड के निषेधक भगवान वर्धमान स्वय ही लाख स्वर्णमोहरों के मूल्यवाले देवदृष्य को ग्रहण करते है यह कैसी सगत और सुशोभित घटना है? इस बात पर पाठक स्वय ही विचार कर ले। निषेधक स्वय जिस निषेध का अनुसरण न करता हो और निषेधाज्ञा को प्राचारित करना इच्छता हो उसका बर्ताव मनसि अन्यत् वचसि अन्यत्-अर्थात् मन मे कछ और वचन मे कछ और जैसा माना जाता है। इस तरह के मात्र जबान से कहने वाले निषेधको को आज कोई बात तक नही पूछता और न ही उनके जीवन की कुछ कीमत है। हमारे ग्रन्थकारो ने ऐसे २ अनेक बाते लिखकर कितनी एक जगह तो पुराणो को भी मात कर दिया है। ऐसा करके जिनशासन की प्रभावना की है। कैसी सन्दर प्रभावना और कैसा मन्दर उसका उपाय!!! कहा जाता है कि भगवान महावीर जब देशना देते तब देवताओं के द्वारा तीन किले-गढ रचे जाते थे। वह भी पाषाण के नही बल्कि चादी स्वर्ण और रत्नो के होते थे। कैसी विचित्र बात है कि एक निर्ग्रन्थ को सादी और सत्य बात कहने के लिये सूत्रो मे जगह २ पर वर्णित शिलापट्ट या १५

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