Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 106
________________ होगा कि जो हेतुरूप पदार्थ हैं उन दोनों के बीच कितना अधिक विरोध रहा हुआ है। परिग्रह के अनिच्छक को अतुल धन सम्पत्ति किस तरह मिल सकती है? दान देने वाला चक्रवर्ती सम्राट किस तरह बने? और ब्रह्मचर्य का संस्कारी सधरा हुआ व्यभिचारी कैसे बन सकता है? इस तरह की असंगतियों के उपरान्त कितनी एक ऐसी कल्पित कथायें भी घड़ी गई हैं कि जिन से विशेषतः संस्कारो और मनोवृत्ति पर आधारित कर्मबन्ध की व्यवस्था को भी बडा भारी धक्का पहुच है। कुवर जी भाई के देवद्रव्य नामक निबन्ध मे आप ऐसी अनेक कथायें देख सकते हैं जिस से उपरोक्त बात भली भाँति ध्यान में आ सकती है (देखो ऋषभदत्त की कथा पृ० ११) इस कथा के मालिक ने स्वकार्य में व्यग्र होने से देवद्रव्य से लगती विस्मृति की थी इससे उस बेचारे को भैंसे की योनि मे भेज दिया। मुझे तो यह मालम है कि "माया तैर्यग्योनस्य," अर्थात् तिर्यंचता का हेतु दम्भ है। यहा पर तो कथा कराने विस्मृति के परिणाम में ऋषभदत्तशेठ को भैंसा बनाया है, परन्तु उसने जो परिधापनिका उधार लेकर जिन पूजा की थी उसके परिणाम में उसकी इन्द्रों से पूज न कराई, यह वदतो व्याधात , जैसी बात है। अब सागरशेठ की कथा का भी नमूना देखिये, पृ०१३। इस कथा मे सागरशेठ ने चैत्यद्रव्य से चैत्य के कारीगरो मे व्यापार किया था, उस व्यापार से उसने मात्र १२।। रुपये का नफा लिया था, उसके परिणाम मे उसे जलचर होना पडा, ६ महीने तक वज्र की चक्की मे पिसना पडा, फिर तीसरी नरक मे गया, मच्छ बना, चौथी नरक मे गया, पहली नरक से लेकर सातवी नरक तक अनेक बार गया, फिर हजार दफा सूवर, हजार दफा बकरा, हजार दफा हरिण, हजार दफा खरगोश, बारहसीगा, गीदड, बिलाव, चहा, न्यौल, छपकी, गोय, सर्प, बिच्छ, कमी, पृथ्वी, पानी, अग्नि, वाय, वृक्ष, शख, जोख, कीडा, कक्खी, भ्रमर, मच्छर, कछुआ, रासभ, भैंसा, अष्टापद, खच्चर, घोडा, हाथी, व्याघ्र, और सिंह वगैरह की योनि मे उसने हजार २ बार जन्म धारण किये इतना ही नही बल्कि कथाकारने तो उसके सिर पर इससे भी विशेष दुर्दशा का पहाड रख दिया है। मेरी मान्यतानुसार उस सागरशेठ ने चैत्य की जो अवैतनिक सेवा की थी उसके बदले मे कथाकारी की दृष्टि से वह अवश्य दिव्य पुरूष होना चाहिये था, परन्तु कथा मे इस विषय का इशारा तक भी नही किया!! मैं मानता हूँ कि अन्याय करनेवाला दण्ड का पात्र अवश्य है परन्तु वह दण्ड अन्याय के प्रमाण मे ही उचित होता है। ऊपर बतलाये हुये सागरशेठ का न्याय करनेवाली फौजदारी कोर्ट, उसका न्यायधीश और उसकी धारा सभा मुझे मानुषिक नही प्रतीत 47

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