Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 114
________________ आगम-वाचनवाद अब मैं अपने अन्तिम मुद्दे पर चर्चा करके इस निबन्ध को जो मेरी धारण से अधिक लम्बा हो गया है समाप्त करूँगा। अन्तिम मुद्दा आगम वाचन वादका है, अतः मुझे यहाँ पर जो कुछ बतलाना है वह निम्न प्रकार से है। साध लोग कहते हैं कि गृहस्थों को सूत्र पढ़ने का अधिकार नहीं है, गृहस्थ तो मात्र सूत्रों का श्रवण ही कर सकते हैं और वह भी हमारे द्वाराही पाठको! आप स्वयं देख सकते हैं कि बीसवीं सदी के इन निर्ग्रन्थ महात्माओं की कितनी सत्ता और शेखी है। वे इस विषय में कुछ आज ही ऐसा नहीं कहते हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में मैं प्रथम ही आप के समक्ष श्री हरि भद्रसूरि के शब्दों में बतला चुका हूँ कि • चैलयवासियों में से कितनेक व्यक्तियों ने उस समय यह पुकार उठाई थी कि श्रावकों के समक्ष सूक्ष्म विचार न प्रगट करने चाहिये, अर्थात् जैसे ब्राह्मणों ने वेद का अधिकार अपने लिये ही रखकर दूसरों को उसके अनधिकारी ठहरा कर अपनी सत्ता जमाई थी, वैसे ही इन चैत्यवासियों ने भी आगम पढने का अधिकार अपने लिये ही रिजर्व रक्खा और श्रावकों को उसका अनधिकारी ठहराया था। यदि वे श्रावको को भी आगम पढने की छूट दे दें तो अंग ग्रंथों को पढकर जो धन वे स्वय उपार्जन करना इच्छतेथे वह किस तरह बन सकता था? तथा अगग्रन्थों के अभ्यासी श्रावक उनका दुष्टाचार देखकर उन्हें किस तरह मान देते ? इस प्रकार श्रावकों को आगम पढने की छूट देने पर अपने ही पेट पर लात लगने के समान होने से और अपनी सारी पोल खुलजाने का भय होने के कारण ऐसा कौन सरल पुरुष होगा कि जो अपने समस्त लाभ को अनायास ही चला जाने दे ? पूर्वोक्त हरिभद्रसूति के उल्लेख से यह भली भाति मालूम होता है कि श्रावकों को आगम न वांचने देने का बीच चैत्यवासियों ने ही बोया है और आज तक वह उसी तरह का सडा हुआ पानी पी पीकर इतना बढ़ गया है कि अब हमें अवश्य ही उसका विच्छेद करना पड़ेगा। ___मुझे इस अन्तिम मुद्दे को दो भिन्न-भिन्न दृष्टियो द्वारा स्पष्ट करना है। एक तो भाषादृष्टि और दूसरी शास्त्र दृष्टि है। वैदिक धर्मानुयायियों की तरफ से हम पर यह आक्षेप किया जाता है कि सस्कृत जैसी प्रौढ़ भाषा को छोड़कर जैनियों ने जो अपने मूलग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिखे हैं उसका कारण उनकी सस्कृत से अनभिज्ञता होनी चाहिये। परन्तु इस आक्षेप की निर्मुलता बतलाते हुये हमारे महर्षि कहते है • "केइ भणतिउ भ णणइ सुहुम वियारो न सावगाण पुरो, सबोध प्र० पृ० १३-श्लोक १६ 105

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