Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 108
________________ प्रकरण में लिखा है कि श्रीवर्धमान ने अभयकमार के प्रश्नों का उत्तर दिये थे उनका मैं इस श्राद्धविधि नामक ग्रन्थ में संग्रह करता है! कहां तो दो हज़ार वर्ष पहिले के श्रीवर्धमान और अभयकुमार? और कहां यह परसों होनेवाले रत्नशेखरसूरि? तथापि कदाचित् किसी विद्या के बल से वे सिद्धशिलातक (२) पहँचे हों और वहां पर विराजमान श्रीवर्धमान और अभयकुमार को पूछकर उन्होंने यह ग्रन्थ बनाया हो तो यह ऐसे महापुरूषो के लिये सम्भवित है।!!! इस तरह के अनेक ग्रन्थ, गाथाये और आज कल तो दोहतक धडने वाले वर्तमान समय मे श्रीवर्धमान के ही नाम से कमा खाते है। तथापि हम श्रीवर्धमान के कितने अधिक भक्त बन गये हैं कि किसी की भी धड़न्त मे श्रीवर्धमान का नाम आते ही विवेक को भी एक तरफ रखकर हांजी हां कह कर अपना ही अहित करते हैं। हमारे चरित विभाग और कल्पित कथा विभाग की स्थिति इतनी अधिक खराब है कि यदि उसका पृथक्करण नही किया गया और कल्पित कथाओ को बुद्ध की जातक कथाओं के समान मानुषिक रीति से सम्भवित साचे में ढाला गया हो कुछ समय के बाद उसे कोई संघने तक की भी पर्वाह न करेगा। अब अधश्रद्धा का समय बहुत व्यतीत हो चुका है। मैं मानता हूँ कि गहिलभक्ति के आवेश से हम भयंकर अनर्थो को कर डालते हैं और इसी कारण हम देव, इन्द्र शक्र, शतक्रत, परदर, मघवा, मेरू और शची वगैरह के मूल और मुख्य अाँ तक न पहुँच कर उसके पौराणिक रूप अपने साहित्य मे मिलाकर साहित्य को विकृत कर रहे हैं, एवं पूर्व के कथाकारो ने भी इसी कारण इस तरह का विकार पैदाकर साहित्य को बिकारित करने मे कुछ कचास नही रक्खी। उन कथाकारो का एक ही उद्देश्य था कि कथाओं मे चाहे जैसे भयकर भय और बडी २ उधाररूप लालचे दिखला कर लोगों को सन्मार्ग पर लाना, केवल इसी धुन में उन्होने मात्र प्राणों की रीति का अनुसरण करके और साहित्य शास्त्र, तथा धर्मशास्त्र, एव काल्पनिक विषय की मर्यादा का लोप होने तक भी पीछे फिरकर न देखा। इससे उनके सदुदेश के बदले वर्तमान मे ऐसा विचित्र परिणाम उपस्थित हुआ है कि नगद धर्म को छोड़कर मनुष्य उधार धर्म के पथ मे पडकर दिन प्रितिदिन अध स्थिति प्राप्त करते जा रहे हैं और हमारा यह अध पात कहा जाकर अटकेगा यह भी मालूम नहीं होता। बस इस विषय में इससे अधिक कलम चलाकर मैं आप को कष्ट देना नहीं चाहता। ___ मैं पहले कह चका है कि हमारे कलगरूओ ने कितनेक अपने भीतरी मतभेद गृहस्थियों में भी घुसा दिये है, गृहस्थियो को भी उन्होंने अपने जैसा कलही बना कर अपने गुरूधर्म का कर्तव्य पालन करने में जरा भी त्रुटि नहीं ११

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