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जैन कथानुयोग ।
प्रारभ मे की हुई अपनी सूचना के अनुसार अब यहा पर मुझे चैथे आगम-वाचन वाद का प्रारंभ करना चाहिये। परन्तु आप को स्मरण होगा कि इससे पहले मैंने जैन कथानुयोग और श्वेताम्बर दिगम्बर मूर्तिवाद की भी समालोचना करने का वचन दिया था, तदनुसार उस सम्बन्ध मे कुछ लिखकर प्रस्तुत मुद्दे को बनते तक शीघ्रता से आप को समक्ष रखने की विस्मृति न करूँगा | जैन कथानुयोग की समालोचना करना यह एक इमली के पत्ते गिनने के समान दीर्घ सूत्री कार्य है, परन्तु स्थाली पुलाक न्याय से चाहे जैसे दीर्घकाय पुस्तक या साहित्य की भी समालोचना हो सकती है और समालोचक समाज मे उस तरह की प्रवृत्ति भी प्रामाणि मानी जाती है, अत मैं भी पूर्वोक्त न्याय का अनुसरण करके प्रस्तुत समालोचना का उत्क्रम करता हूँ ।
जैन कथानुयोग मे आनेवाले वृत्तान्तो के मुख्य दो प्रकार हैं। एक चरित विभाग और दूसरा कल्पित विभाग। उन में जो चरित्र विभाग है उसके सम्बन्ध मे मुझे खेदपूर्वक लिखना पडता है कि उस विभाग मे चरितता बहुत ही कम नजर आती है, परन्तु पौराणिकता की मात्रा इतने अधिक प्रमाणो मे बढ़ गई है- बढादी गई है कि जिससे उसे अब चरित विभाग का नाम देना भी कठिन प्रतीत होता है। उस विभाग मे अतिशयोक्ति तो इतनी की गई है। कि जिसकी मर्यादा भी कायम न रहने से वह अलकार रूप मे नही घट सकती । भगवती सूत्र मे जहा पर किसी की दीक्षाका वर्णन आता है वहा वह दीक्षित होने वाला राजा हो या रक, ब्राह्मण हो या वैश्य परन्तु उन सब के लिये एक समान और एक साथ तीनलाख (रुपये ( का खर्च बतलाया है, याने दीक्षा लेनेवाले को दीक्षा लेने को देना चाहिये, एक लाख का रजोहरण लेना चाहिये और एक लाख का पात्र लेना चाहिये। यह उल्लेख जितना मर्यादा विरूद्ध है उतना ही शास्त्र विरूद्ध है। कदाचित् किसी धनवान ने दीक्षा लेते समय क्षौर करनेवाले नापित को एक लाख का इनाम दिया हो यह सम्भव हो 'सकता है, परन्तु एक लाख का रजोहरण और एक लाख का पात्र किस तरह संभवित हो सकता है? यदि कदाचित् यह कहा जाय कि हीरा रत्नजड़ित रजोहरण तथा वैसा ही पात्र लिया जाय तो यह बात सघटित हो सकती है, परन्तु ऐसा करते हुये दीक्षा लेनेवाला दीक्षा लेते ही जिनाज्ञा का लोप करता है । यदि उसे हीरा और रत्न रखने हो तो निर्ग्रन्थ बनने का कोई कारण ही
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