Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 99
________________ विद्यमान होते तो आजकल के कट्टर भक्त अवश्य उन पर द्रव्य चढ़ाते, उन्हें सुवर्ण और चांदी के फूलो से पूजते और इस प्रकार उनके पास अतुल धन का ढेर लग जाता, तो क्या उस धन को वह नग्नदेव अपने साथ उठाये फिरते या उसे अपनी मालकीयतका समझकर किसी गृहस्थ के वहा अपने नाम से जमा करते ? मैं इस प्रश्न का उत्तर नकार मे समझ कर इतना कहता हूँ कि उस द्रव्य का उपयोग भगवान के नाम से चलनेवाले महावीर विद्यालय जैसे समाजोपयोगी कार्य मे होता और सो भी उनके ये ही भक्त करते। इस तरह करने में, जिनद्रव्य के सकुचित अर्थ की भी कोई बाधा नहीं देख पड़ती। परन्तु विचार शून्यता के कारण उस जिनद्रव्य या देवद्रव्य के व्यवस्थापक अशास्त्रीय लकीर के फकोर बनकर वर्तमान समय मे उस पवित्र द्रव्य का (जो आज करोडो की सख्या मे विद्यमान है और जिसके खर्च से शिक्षण प्रचार द्वारा सारे जैन समाज का कल्याण हो सकता है) जिनाज्ञाविरूद्ध हिसााजनक मिले जैसे यांत्रिक कार्यों में उपयोग किया जाता है, क्या यह किसी विचारक जेन के लिये दःखप्रद बात नहीं है? १६ वी और १९ वी शताब्दी ग्रन्थकारो के और वर्तमान आचार्यों एव मुनियो ने इस देवद्रव्य को भगवान श्रीमहावीर के नाम पर चढा कर यहा तक लिख मारा है कि- "भक्खणे देव -दब्बस्य + + +सत्तमनिरय जति मत्तवारा हो । गोयमा!" अर्थात् मानो भगवान महावीर कहते है कि "हे गौतम । देवद्रव्य को खाने वाला सात दफा सातवी नरक में जाता है, इस लिये किसी ने देवद्रव्य न खाना" मेरी मान्यतानुसार यह निषेध वाक्य हरिभद्रसूरिजी के विषेध से मिलता हुआ ही है और चैत्यवासियो के परम्परागत संस्कारो को नाश करने के लिये ही यह निषेध वाक्य लिखा गया है। इस बात को मैं भी दुरूपयोग न किया जाय, उसे चुराया न जाय, अप्रमाणिक रात्या न खर्च दिया जाय या निकम्मे कामो मे न उडा दिया जाय इसी कारण यह निषेध किया गया है। परन्तु ज्ञानदर्शन और प्रवचन की वृद्धि के लिये या उनके उद्धार के लिये इस द्रव्य का उपयोग किया जाय और उसके द्वारा सघके दुर्बल अगो को पुष्ट बनाया जाय तो उस प्रवृत्ति के सामने कोई शास्त्र या सूरि प्रमाणिक रीति से निषेध नही कर सकता। जिनद्रव्य के समर्थ श्रीहरिभद्रसूरि उद्घोषणा पूर्वक विहित करते हैं तदनुसार ज्ञान प्रभावक, दर्शन प्रभावक और प्रवचन वृद्धि कर उस मंगल द्रव्य, शाश्वतद्रव्य, निधिद्रव्य या जिनद्रव्य का उसके विशेषणो के अनुसार उपयोग किया जाय तो इसमे जरा भी अप्रमाणिकता नही, लेशमात्र अशास्त्रीयता नही और कणमात्र दूषण भी नही है। इस प्रकार की वस्तु 90

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