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४ केशोत्तारणमल्पमल्पमशनं नियंजनं भोजन। निद्रावर्जनमह्नि मज्जनविधित्यागश्र भोगश्च न।। पानं संस्कृतपाथसामविरंत येषां किलेत्थं क्रिया तेपां कर्ममयामयः स्फुटमयं स्पष्टोऽपिहि क्षीयते ।।१७०।। (पृष्ठ
जब इस मंध्यम मार्ग के प्रारभ का समय होग उस वक्त वे निर्ग्रन्थ उपदेश द्वारा एव ग्रन्थ रचना द्वारा लोकोपकार करते होंगे, प्रारंभ में तो शक्य निर्दोषता रखकर ही इस मार्ग को विजयी बनाने का उनका ध्येय होगा, परन्तु ज्यों २ समय बीतता गया त्यो २ उन्होंने कितने एक अपवादों को स्वीकार करके भी लोक श्रेयका कार्य किया होगा। इसी तरह वे धीरे २ बौद्धो के मठवास के समीप मे आये होगे। जो मैंने अभी धनादि सामग्री के सम्बन्ध में उल्लेख किया है वह कोई मेरा कल्पित विचार नही है, किन्तु उस समय मठवास के निकट आते हये जैनाचायों को जैनराजा द्वारा धन दान दिया जाने के और उस समय की जैनप्रजा द्वारा सामाजिक शुभ कार्य के लिये मनियों को धन देने के अनेक उल्लेख मिलते हैं। । आचार्य श्रीसिद्धसेनसरि को विक्रमादित्य एक करोड रुपये देने लगा था और वे रुपये विक्रम के बही खाते मे श्रीसिद्धसेन के नाम लिखे भी गये थे। परन्तु अकिचन श्रीसिद्धसेन ने उन्हे लेने से अरुचि प्रगट की थी और उस द्रव्य का विक्रमादित्य को यथासचि उपयोग करने को कह दिया था, इससे विक्रमादित्य ने श्रीसिद्धसेन को अर्पण .किया हुआ वह द्रव्य दुखीसाधर्मिक और चैत्यो के उद्धार मे खर्च किया था। 2 आचार्य जीवसूरि को लल्ल नामक एक जैनगृहस्थ ने पचास हजार रुपये अर्पण करने की इच्छा व्यक्त की थी और कहा था कि "यदि आप यह धन लो तो मुझे अधिक लाभ होगा आप यह धन लेकर यथेच्छ दान दे सकते हैं" परन्त उस आचार्य ने भी श्रीसिद्धसेन के समान उसी कारण (साधता मे बाधा आ जाने के कारण) उस धन को अगीकार न करके लल्ल शेठ द्वारा ही एक
१श्रीसिद्धसेनसूरिश्चान्यदा ब्राह्मभुवि वजन्। दृष्ट श्रीविक्रमाकेण राज्ञा राजध्वगेन स ।।६१।। तस्य दक्षतया तुष्ट प्रीतिदाने ददौ नृपा। कोटि हाट कटक्डाना लेखक पत्रके लिखत् ।। ६२।। तद्यथा-धर्मलाभ इहि प्रोक्ते दुरादुद्धतपोणये। सूरये सिद्धसेनाय ददौ कोटि नराधिप ।।६४।। उवाच सिद्धी द्रव्येण चक्रेऽसौ साधारण समुद्रकम् । दुःस्थासाधमिकस्तोम -चैत्यो द्वारा दिहेतवे" ।। ६६ ।। (प्रभावकच० पृ०९४)
२ ययौ लल्ल प्रभो पार्वे चक्रे धर्मानुयोजनम् ।।९७।। - श्रुत्वेति स प्रपेदेऽथ ससम्यक्त्वा व्रतावलीम् ।।१०१।। द्रव्यलक्षस्य सकल्पो विहित सूर्यपर्वणि ।।१०२।। कथमर्ध मया शेष व्ययनीय यदादिश ।। १०३।। मम चेतसि पृज्याना दत्त बहुफल भवेत्। तद् गृहीत प्रभो। यय यथेच्छ दत्त वाSSदरात् ।। १०४।।
(प्रभा० पृ०८५)
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