Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

View full book text
Previous | Next

Page 90
________________ रखने के लिये एव उन्हें सफल बनाने के लिये लोगो की तरफ से साधुओ को धनादि सामग्री का दान देना निश्चत ही है इसमें किसी तरह के संकल्प विकल्प को स्थान ही नहीं मिल सकता। वे भिक्ष तो आचार से पवित्र और विचार से विशुद्ध थे। मात्र त्याग की पराकाष्ठा ही उन्हें असह्य मालूम होती थी, इसी कारण वे जिस तरह लोकोपयोगी होकर श्रीवर्धमान के मार्ग के प्रचारक हो सकें और अपने पराये कल्याण के साधक भी बन सकें इस प्रकार के इस आपवादिक मार्ग का अनुसरण करते थे। लोग अपनी या उस समय के अपने समाज की उन्नति के लिये उन भिक्षओ को जो धनादि सामग्री प्रदान करते थे उसका नाम मगलद्रव्य, शाश्वतद्रव्य या निधिद्रव्य रक्खा गया था। यहां पर मुझे प्रसंगोपात यह बात भी बतला देने की आवश्यकता है कि जो निर्ग्रन्थ धन का स्पर्श तक भी न करते थे, जो सह्य त्यार के एवं आत्मकल्याण के अभिलाषी थे और जो भिक्षु अपनी सयम पद्धति को लोक हित के रूप में परिवर्तित कर भगवान महावीर का मार्ग दिपाने मे आतर थे वे मध्यम मार्ग पर आरूढ़ होते ही लोकोपयोगी सर्व प्रकार के आरभो को भी करने लग पडे थे यह समझना भूल होगा। यह एक नैसर्गिक नियम है कि ज्यों मनुष्य को ऊपर चढ़ते हुये देर लगती है त्यो उतरहे हये भी समय लगता है, इस नियम के अनुसार हमारे उन निर्ग्रन्थ महानुभावो ने चाहे वैसे सरल मार्ग को अगीकार किया था तथापि उपदेशतरंगिणी के इस श्लोक मे वर्णित उनका आचार लगभग अबाधित था__ "१ भुज्जीमही वय भैक्ष, शीर्ण वासो वसीमहि। शयीमहि महीपीठे कुर्वीमति किमीश्वरैः" ।। १४५।। पृ० ४९ ___ "२ पद्भ्यामध्वनि सचरेय विरस भुज्जीय भैक्ष सकृनजोर्ण सिग् निवसीय भमिबलये रात्रौ शयीय क्षणम्। निस्सग्ङत्वमधिश्रयेय मितामुल्लासयेया अनिश। ज्योतिस्तत् परम दधीय हृदये कुर्बीय कि भूभुजा ।। १६८।। ३ पट्यौ गलदुपानम्या सचरन्तेऽत्र ये दिवा। चारित्रिणस्त एव स्युन परे यानयायिन ।।१६१।। १ भिक्षा मागकर भोजन करना, शीणं-फटे टूटे वस्त्र पहनना, जमीन पर सोना। २ पैदल प्रवास करना, एक ही दफा निरस आहार करना, पुराने वस्त्र पहनना रात को जमीन पर क्षणभर सोना नि सग रहना, सर्वथ सम रहना, परमज्योतिका ध्यान करना। ३ पैरो मे जता न पहनना, यानयायी न होना। ४ केशापनयन करना, कम खाना, शकादिरहित भोजन करना, दिन मे न सोना, स्नान और भोग का त्याग करना तथा सस्कारित पानी पीना।"

Loading...

Page Navigation
1 ... 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123