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होगी, परन्तु एक घटदार वृक्ष के समान उसका धीरे २ विकाश भी हुआ होगा और अन्त में उसमें बिकार हुये बाद ही उसे नष्ट होना पड़ा होगा। एक आम के पेड को पैदा होते, फलते, फूलते और अन्त मे कालके गाल मे पडते तक भी अधिक समय व्यतीत होता है तो फिर एक बड़ी सम्प्रदाय - परम्परा को पैदा मार्गरूप से चिरकालतक स्थित रह कर नष्ट होते हुये यदि पांच छह शताब्दीया या इससे कुछ और भी न्यूनाधिक समय बीत जाय तो यह क्रमविकाश की दृष्टि से सर्वथा संभवित हैं। इसी प्रकार अन्य सम्प्रदायों का प्रारम्भ से अन्ततकका इतिहास पढते हुये भी इतने ही समय की प्रतीत होना शक्य मालूम होता है। इसी आधार से मैने ऊपर बतलाया है कि चैत्यवास का बीजरोपण बुद्ध के मध्यम मार्ग के आधार पर उसी समय हुआ है जबकि महावीर, सुधर्मा या जम्बू जैसे कठिन त्याग के प्रेमियो का अभाव था, उस समय जो कठिन त्याग के अनुयायी थे वे बहुत कम प्रमाण मे थे और जिनकी संख्या अधिक थी उनका लक्ष्य बुद्ध के मध्यम मार्ग जैसे सरल मार्ग पर जम चुका था । अर्थात् वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी में ही इस परम्परा की खूब गहरी जड जम गई थी, जिसके द्वारा श्वेताम्बरता और दिगम्बरता के विषवृक्ष की भी पुष्टि हुई थी । अन्त मे जो वीर निर्वाण के बाद ९ वी शताब्दी
अकूर प्रगट हुआ वह भी ऐसी सडी हुई दशा मे प्रगटा कि वीर निर्वाण के बाद ११ वी शताब्दी मे होने वाले आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि को अपने सम्प्रदाय की भी उस जड़ पर नष्ट करने का प्रयास करना पडा था, यह आज हमारे सामने प्रत्यक्ष है। इस प्रकार श्री हरिभद्रसूरि ने किया हुआ मूर्तिवाद और देवद्रव्य का उल्लेख एव इस परम्परा के सामने जो विरोध करने का उल्लेख किया है ये तीनो ही मेरी इस क्रमिक विकास की कल्पना को मजबूत बनाने के लिये पर्याप्त हैं। अब मुझे यह बात यहा पर जरा विशेष रूप से स्पष्ठ करने की आवश्यकता है कि चैत्यवास की इस परम्परा के साथ मूर्तिवाद और देवद्रव्य का किस तरह का सम्बन्ध है? यदि मैं यथार्थरूप से इस प्रश्न का उत्तर दे सकूंगा तो ही इस प्रस्तुत विषय पर यर्थाथ रीत्या चर्चाकर सकता हूँ। अभी तक ऐसा एक भी प्रमाण उपलब्ध नही हुआ जिससे यह प्रमाणित हो कि श्री वर्धमान के समय मूर्तिवाद वर्तमान के समान एक मार्ग स्वरूप प्रचलित हुआ, हो तथा वीर निर्वाण से ९८० वर्ष मे सकलित हुआ साहित्य भी इस विषय में किसी प्रकार का विधायक प्रकाश नही डालता कि जो मूर्तिवाद के साथ प्रधानता विशेष सम्बन्ध रखता है। इससे हम इतने सरल सत्य को तो अवश्य समझ सकते हैं कि वीर निर्वाण से ९८० वर्ष तक के या विक्रम से ५१० वर्ष तक के समय मे एक प्रवाही मार्ग रूप मे मूर्तिवाद की उत्कट गन्ध तक मालूम नही होती। तथापि मै इस बात को मजूर कर लेता
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