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'हिंसामूलक इस मूर्तिवाद के विधान का और तदवलम्बी देवद्रव्य के विधान का उल्लेख किस तरह कर सकते है? श्री हरिभद्रसरिजी के बहुत से ग्रन्थों में इस मर्तिवाद के विधान से लगता और देवद्रव्य की वृद्धि से लगता हुआ उपदेश दिया गया है, तदुपरान्त उन्होंने देवद्रव्य के भक्षक, देवद्रव्य के उपेक्षक और जिनाज्ञा बिना अनुचित रीति से देवद्रव्य की वृद्धि कारक को संसार समुद्र में डूबता हुआ भी बतलाया है। श्रीहरिभद्रसूरि का समय विक्रम की आठवी शताब्दी स्थिर किया गया है और हमारे सत्र ग्रन्थो के अन्तिम सस्करण का समय जो देवर्धिगणीजी द्वारा वलभीपर मे किया गया था, महावीर निर्वाण से ९८० याने विक्रम की ५१० शताब्दी मे शास्त्रनिश्चित है, और महावीर निर्वाण से ८८२ याने विक्रम ४१२ वे वर्ष मे निर्ग्रन्थों के चैत्य वास प्रारंभ करने की बात पहिले बतलाई जा चुकी है। तब इस ४१२-५१० और विक्रम की आठवीं शताब्दी इस एक शताब्दी और दो तीन शताब्दी के मध्य के समय मे ऐसी कोई परिस्थिति उपस्थित हो गई होगी कि जिस कारण जिस बात को ताजे ही संस्कारित हये सत्र ग्रन्थो मे न देखने पर
भी श्रीहरिभद्रसूरिजी को अपने बहुत से ग्रन्थो में लिखना पडा हो और उसे विहित भी करना पड़ा हो। श्री हरिभद्रसूरि के बाद के जिन २ ग्रन्थों में मूर्तिवाद और देवद्रव्य की चर्चा की गई है एव विहितता बतलाई गई है उन सब के मूल हरिभद्रसूरि के गन्थो मे यह बात आई कहा से यह एक प्रश्न विचारने याग्य है। अर्वाचीन आचायो को मैं जैसे मताग्रही कह कर सबोधित करता हूँ वैसे इस महापुरूष के लिये नही कहा जा सकता। उनके ग्रन्थों मे जो मध्यस्थता, गम्भीरता और सांप्रयता देखी गई है वह लेखनशैली उनके बाद के ग्रन्थो मे मझे कचित् ही देख पडती है। अब हम इस प्रस्तुत विवाद का अन्त तभी ला सकते है जब श्रीहरिभद्रजी के ग्रन्थो मे आये हुये मूर्तिवाद और देवद्रव्र, सम्बन्धि चर्चा की जड़ को ढूंढ निकाले। यद्यपि यह एक ऐतिहासिक प्रश्न बडा ही जटिलसा प्रतीत होता है, तथपि इसे हम इस प्रकार सुलझा सकते हैं- आचारागसूत्र मे आई हुई भगवान श्रीवर्धमान की चर्चा से मालम होता है कि उनका त्याग विशेष कठिन था, बल्कि और भी कहे तो उस तरह के त्याग को आचार मे लाने के लिये मात्र वैसे ही समर्थ पुरूषो का सामर्थ्य होता है और वैसे वीर विरले ही होते हैं। जम्बूस्वामी के बाद जिनकल्प विच्छेद होने की जो दन्तकथा प्रचलित है, उसी से भगवान वर्धमान के त्याग की कठिनाई स्पष्ट हो जाती है। महावीर निर्वाण के बाद जम्बूस्वामी तक के समय मे याने महावीर निर्वाण की प्रथम शताब्दी मे महात्मा बुद्ध के मध्यम मार्ग ने काफी लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी। उनके मार्ग का यह उदेश्य था कि शरीर को विशेष न सताकर ऐमी प्रवृत्ति करने
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